जे सठ गुर सन इरिषा करहीं। रौरव नरक कोटि जुग परहीं॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा। अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा॥3॥
प्रस्तुत है लब्धसिद्धि ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज
ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष एकादशी (अपरा एकादशी )विक्रम संवत् 2080
तदनुसार 15 -05- 2023
का सदाचार संप्रेषण
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655 वां सार -संक्षेप
1=one who has attained perfection
कल आचार्य जी ने बताया था
जिनके अंदर रामत्व प्रवेश नहीं करता वे संसार को ढोते हैं
आइये प्रवेश करें आज की वेला में
हम ऋषियों से तात्विक ज्ञान लें हनुमान जी की साधना करें अपने व्यक्तित्व के निर्माण हेतु प्रयास करें
ॐ सह नाववतु ।
सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्य करवाहै ।
तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
चैतन्य को जाग्रत करने वाले सांसारिक सद्वयवहार दिव्य कर्म अर्थात् भोजन के समय किये जाने वाले इस मन्त्र से हम अच्छी तरह से परिचित हैं
सह नाववतु ।
सह नौ भुनक्तु ।......
जब ऐसा होता है तो तीनों तापों में शान्ति मिलती है
यज्ञ भाव से किया गया भोजन साधना का कारक बनता है
पवित्रता के साथ हमें भोजन करना चाहिए
अन्यथा
मन पछितैहै अवसर बीते।
दुर्लभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु हीते॥१॥
सहसबाहु, दसबदन आदि नप बचे न काल बलीते।
हम हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥२॥
सुत-बनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबहीते।
पुत्र, वनिता अर्थात् पत्नी आदि परिवार जनों का सम्बद्ध तुझसे स्वार्थ के कारण है इसीलिए उनसे प्रेम न कर
यह नेह सात्विक स्नेह नहीं है यह आत्मभावयुक्त आत्मबोध नहीं है
यह मोह है जो सभी व्याधियों का मूल है
अंतहु तोहिं तजेंगे पामर! तू न तजै अबहीते॥३॥
वो सब तुझे अंतिम समय में त्याग देंगे, तू उनको अभी से ही क्यों नहीं त्याग देता।
वाल्मीकि जी महाराज का प्रसंग याद कर सकते हैं जिसमें उनके परिवार ने पाप में भागीदारी मना कर दी थी
इसीलिए हमारे यहां परिवारभाव संबंधों का होता है साधनों का नहीं
मां रत्नावली ने तुलसी जी के ज्ञान के कपाट खोल दिए थे
संकट आने पर परिस्थिति की समीक्षा करनी चाहिए व्याकुल नहीं होना चाहिए
ऐसी ही समीक्षा आनन्द में डूबे कागभुशुंडी जी कर रहे हैं
वे हर तरह के रूप धर सकते हैं उन्हें पूर्वजन्म भी याद हैं
एक बार गुर लीन्ह बोलाई। मोहि नीति बहु भाँति सिखाई॥
सिव सेवा कर फल सुत सोई। अबिरल भगति राम पद होई॥1॥
एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम॥106 क॥
एक दिन मैं शिव जी के मंदिर में शिवनाम जप रहा था। उसी समय गुरुजी वहाँ आए, किन्तु अभिमान के कारण मैंने उनको प्रणाम नहीं किया
यह शिव जी को ही अच्छा नहीं लगा गुरु तो बहुत महत्त्वपूर्ण हैं
शिव जी का भयानक शाप सुनकर नवनीत के समान हृदय वाले गुरु जी हाहाकार करने लगे । मुझे काँपता हुआ देखकर उनके हृदय में बड़ा संताप पैदा हुआ
इसके आगे आचार्य जी ने क्या बताया रमेश भाई ओझा जी अशोक सिंघल जी का नाम क्यों आया
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥1॥
की क्या विशेषता है जानने के लिए सुनें