त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।2.45।।
वेद तीनों गुणों के विषय हैं लेकिन हे अर्जुन! तुम तीनों गुणों से रहित हो जाओ , निर्द्वन्द्व हो जाओ , निरन्तर नित्य परमात्मा में स्थित हो जाओ , योगक्षेम की इच्छा भी मत रखो व परमात्मपरायण हो जाओ ।
प्रस्तुत है यतचित्त ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज
ज्येष्ठ मास कृष्ण पक्ष द्वादशी विक्रम संवत् 2080
तदनुसार 16 -05- 2023
का सदाचार संप्रेषण
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656 वां सार -संक्षेप
1=मन को वश में रखने वाला
कल आचार्य जी ने बताया था
संकट आने पर परिस्थिति की समीक्षा करनी चाहिए व्याकुल नहीं होना चाहिए
आइये इसी तरह के सद्विचारों को ग्रहण करने के लिए, आत्मबोधित होने के लिए, तत्त्व की बातें समझने के लिए प्रवेश करें आज की वेला में
संसार के कार्यव्यापार में मग्न रहते हुए, गृहस्थ आश्रम के पवित्र कर्मों धर्मों का परिपालन करते हुए यदि हम जीवात्माओं को आनन्द की अवस्था प्राप्त करनी है तो मैं का भाव अपने अन्दर कम करना होगा
आइये प्रविष्ट होते हैं
उत्तरकांड में जिसमें ज्ञान भक्ति उपासना तत्त्व आदि को अद्भुत रूप से दर्शाया गया है
विषय और कथा का अद्भुत सम्मिश्रण है
शूद्रतन प्राप्त प्रारम्भ के कागभुशुण्डी जी शिवभक्त हैं
पूजा कर रहे हैं उनमें शिव की उपासना का दम्भ भर गया है
अखंड जप चल रहा है
गुरु जी के आने पर भी जप चल रहा है सर्वज्ञ सर्वत्र शिव जी क्रुद्ध हो गए
मंदिर माझ भई नभबानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी॥
जद्यपि तव गुर के नहिं क्रोधा। अति कृपाल चित सम्यक बोधा॥1
उसी समय मंदिर में आकाशवाणी हुई कि अरे हतभाग्य! अज्ञ ! अभिमानी! यद्यपि तुम्हारे गुरु को क्रोध नहीं हो रहा वे अत्यंत कृपालु चित्त के हैं और उन्हें पूर्ण यथार्थ ज्ञान है
फिर भी मैं तुम्हें शाप दूँगा, क्योंकि नीति का विरोध मुझे अच्छा नहीं लगता है l
गुरु से ईर्ष्या करना अच्छा नहीं है
गुरु के प्रति हमें बहुत कृतज्ञ रहना चाहिए
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप।
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप॥107 क॥
प्रेम सहित दण्डवत करके वे ब्राह्मण श्री शिव जी के सामने हाथ जोड़कर विनती करने लगे
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निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं॥
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥2॥......
तुलसीदास जी के अनुसार
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति॥9॥
भगवान रुद्र की स्तुति का यह अष्टक शिवजी को प्रसन्न करने के लिए उस ब्राह्मण द्वारा कहा गया। जो मनुष्य इसे भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं, भगवान शिव उन पर प्रसन्न होते ही हैं
शिव जी प्रसन्न हो गए
वरदान के रूप में
ब्राह्मण ने अपने लिए भक्ति ही मांगी
शक्ति, संसार नहीं मांगा
वह गुरु शूद्रतन व्यक्ति के कल्याण की कामना करता है
एवमस्तु इति भइ नभबानी॥1॥
और शिव जी प्रसन्न हो गए
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा। मैं पुनि दीन्हि कोप करि सापा॥
तदपि तुम्हारि साधुता देखी। करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी॥2॥
आचार्य जी ने इसके अतिरिक्त और क्या बताया जानने के लिए सुनें