प्रस्तुत है श्लथोद्यम -रिपु ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज
ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष द्वितीया विक्रम संवत् 2080
तदनुसार 21 -05- 2023
का सदाचार संप्रेषण
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661 वां सार -संक्षेप
1 श्लथोद्यम =जिसने अपने प्रयत्न ढीले कर दिये हों
प्रातःकाल नित्य इन वेलाओं में उपस्थित होकर संसार की समस्याओं संकटों चिन्ताओं चर्चाओं पर ध्यान रखते हुए हम लोग
सदाचारमय विचारों में भक्तिपूर्वक रमने का प्रयास करते हैं हमारा सोने जागने खाने पीने का क्रम सही बना रहे इसके लिए हम अपने प्रयत्न ढीले न होने दें
कलियुग , जिसमें सारे कार्य क्षुद्र स्वार्थ के लिए होते हैं, में संघर्ष के साथ अध्यात्म को संयुत करने वाले लोगों की उत्कर्ष पर दृष्टि रहती है लेकिन जो संघर्ष के साथ उत्कर्ष का चिन्तन नहीं करते वो शंकाशील रहते हैं
शंकाएं ही विविध समस्याएं उत्पन्न करती हैं
शंकाशील होने पर कार्य व्यवहार क्षमताएं भस्मीभूत होने लगती हैं
विश्वासी लोगों के अनुसार भगवान् सब कुछ है
भगवान् की अमृतवाणी गीता में
भगवान् स्वयं कहते हैं
पिताऽहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च।।9.17।।
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।9.18।।
निष्क्रियता से सक्रियता श्रेष्ठ है भले ही माला जपना ढोंग लगे
चिन्तन मनन ध्यान अध्ययन स्वाध्याय सद्संगति से यह भाव जाग्रत होता है कि हम परमार्थ हेतु हैं
भारत के ऋषि मुनि चिन्तक विचारक कवि हम जिज्ञासुओं को संसार में रहने का सलीका सिखाते रहे हैं
WhatsApp के forwarded messages की ओर संकेत करते हुए आचार्य जी कहते हैं जो पराये विचारों को ओढ़ लेते हैं उन्हें आनन्द की अनुभूति नहीं होती
आनन्द की अनुभूति तभी होती है जब भीतर से विश्वास उत्पन्न होता है विश्वास ही भक्ति है शक्ति प्रेम उत्साह उमंग शौर्य पराक्रम है
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु॥90 क॥
धीरे धीरे विष्णु भगवान् की संगति करने वाले पक्षीराज में विश्वास उत्पन्न हो गया अहंकार उत्पन्न होने पर पालनकर्ता भक्त की परीक्षा अवश्य लेता है
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता। सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता॥
सुनि उरगारि बचन सुख माना। सादर बोलेउ काग सुजाना॥6॥
कृपा के धाम हे प्रभु
ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर है? यह सब बताएं । गरुड़ जी के वचन सुनकर गुरु काकभुशुण्डिजी ने सुख माना और आदर के साथ कहा
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा। उभय हरहिं भव संभव खेदा॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर। सावधान सोउ सुनु बिहंगबर॥7॥
इसके आगे आचार्य जी ने क्या बताया जानने के लिए सुनें