प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब ते दुर्लभ कवन सरीरा॥
बड़ दु:ख कवन कवन सुख भारी। सोउ संछेपहिं कहहु बिचारी॥2॥
प्रस्तुत है पुरुष -सिंह ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज
ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष एकादशी (भीमसेन एकादशी )विक्रम संवत् 2080
तदनुसार 31 -05- 2023
का सदाचार संप्रेषण
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671 वां सार -संक्षेप
1=पूज्य व्यक्ति
इन सदाचार वेलाओं का उद्देश्य है कि इनका लाभ उठाकर हम सदाचारमय विचार ग्रहण कर सकें
जिस भी तरह से मनुष्य को मनुष्यत्व की अनुभूति हो सके वह प्रयास अवश्य करना चाहिए
जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता
तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता विद्वत्त्वमस्मात्परम्।
आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थितिः
मुक्तिर्नो शतजन्मकोटिसुकृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते॥ २॥
हमारे परिवार इस तरह के रहे हैं कि हम संस्कारित होते रहे हैं पर्व हमें उत्साह प्रदान करते हैं आशावादी बनाते हैं
व्रत आदि के भी नियम हैं
समय का प्रभाव है कि प्रायः मनुष्य अर्थ कमाने में ही लगा है
आचार्य जी हमें बता चुके हैं कागभुशुंडी जी ने किसी कल्प में शूद्रतन पाया था फिर पूजा की,पूजा भी कुछ पाने के लिए की
मानस के कथा भाग ज्ञान भाग भक्ति भाग को संयुत करके जब हम इतिहास में प्रवेश करते हैं तो देखते हैं जब भी धर्म की हानि होती है प्रभु बार बार जन्म लेते हैं शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, बुद्ध भगवान्, जय शंकर प्रसाद, तुलसीदास आदि सभी अवतार हैं
हमारे यहां शास्त्रों की रचना अद्भुत ढंग से की गई है
मानस का पाठ हमारा प्राप्तव्य नहीं है
इसके पीछे का उद्देश्य हमें समझना चाहिए
आत्मचिन्तनपरक होकर मानस जैसे ग्रंथों का अध्ययन कर उनसे लाभ उठाएं
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा॥8॥
क्योंकि
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा॥
सब कर फल हरि भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई॥9॥
श्री राम समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं। श्रीहरि चंदन के वृक्ष जैसे हैं तो संत समीर हैं। सब साधनों का फल हरि भक्ति ही है। उस फल को संत के बिना अब तक किसी ने नहीं पाया
हरि भक्ति रामभक्ति का अर्थ है संघर्षों में मुस्कराना संकटों में हौसला बनाए रखना भयानक से भयानक संकट को भारी न समझना संसार को पार करते चले जाना और साधना से सिद्धि प्राप्त करना
प्रण कर लिया कि
निसिचर हीन करउँ महि तो उसे पूर्ण करना
हम भी संतत्व की अनुभूति कर संत हो सकते हैं
जिसने रामभक्ति में प्रवेश कर लिया वह राष्ट्रभक्त होगा ही
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि॥120 ख॥
वैराग्य रूपी चर्म अर्थात् ढाल से अपने को बचाते हुए, ज्ञान रूपी असि अर्थात् तलवार से मद, लोभ और मोह रूपी शत्रुओं को मारकर जो विजय प्राप्त करती है, वह हरि की भक्ति ही है, हे पक्षीराज! इसे विचार कर देख लीजिए
पक्षीराज समझ चुके हैं लेकिन कागभुशुंडी जी के पास से वे जाना नहीं चाहते
उन्हें बहुत अच्छा लग रहा है
अब तो वे उनके गुरु हो गए हैं उनके प्रति पक्षीराज को भक्ति होनी ही है
नाथ मोहि निज सेवक जानी। सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी॥1॥
ये सात प्रश्न अत्यन्त तात्विक हैं
आचार्य जी ने इनकी व्याख्या में क्या बताया आदि जानने के लिए सुनें