बारि मथें घृत होइ बरु, सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ, यह सिद्धांत अपेल॥
प्रस्तुत है प्रतिसृष्ट ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज
ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रम संवत् 2080
तदनुसार 04 -06- 2023
का सदाचार संप्रेषण
https://sadachar.yugbharti.in/
675 वां सार -संक्षेप
1=प्रसिद्ध
हमारे लिए अत्यधिक अनुकूल और उपादेय सदाचारमय विचारों के साथ लेकर आचार्य जी एक बार पुनः उपस्थित हैं
हमारे अन्दर शक्ति बुद्धि विचार कर्मकौशल संगठन का भाव कितना विकसित हुआ इसकी समीक्षा भी करते रहें
मानस का प्रारम्भ और अन्त दोनों का पाठ अवश्य करें
तो इस मानस की रचना तत्त्व दर्शन और विचार का बोध हो जाएगा बीच की कथा सांसारिक संबन्धों कर्मों को किस प्रकार किया जाए बताती है दिशा दृष्टि देती है लेकिन भक्ति के भाव के साथ इसका पाठ करें
सांसारिक प्रपंचों से मुक्ति और उनमें लिप्तता चलती रहती है
संसार सागर तुल्य है कभी हमें ऊपर ले जाता है कभी नीचे ढकेल देता है
कोई भी दुर्घटना संवेदनशील व्यक्ति को बहुत व्यथित करती है
ऐसी ही एक दुर्घटना परसों
घटी जिसने हम सबको झकझोर दिया
ओडिशा के बालासोर में तीन Trains के आपस में टकराने से भीषण हादसा हुआ है यह एक साजिश भी हो सकती है जिसमें अभी तक लगभग 300 लोगों की मौत हो गई है जबकि 900 से अधिक लोग घायल हैं
परमात्मा से यही प्रार्थना है कि हम सबको इस असहनीय आघात को सहन करने की शक्ति दे
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः
संसार के कर्म सकाम और सकारण होते हैं सकाम सकारण होते हुए भी इनके प्रति यदि हमारी दृष्टि और दिशा सुस्पष्ट रहती है तो संसार में सारे कर्मों को करते हुए भी संसार को समझते रहते हैं और इसीलिए हम सम्मानित चर्चित होते हैं कष्ट में भी आनन्द की खोज कर लेते हैं
हमें साजिशों से सावधान भी रहना है और अन्य को करना भी है
भावुकता और ज्ञान हमारा संबल बने
विनय पत्रिका में
मनोरथ मनको एकै भाँति ।
चाहत मुनि-मन- अगम सुकृत फल, मनसा अघ न अघाति ॥ १ ॥
करमभूमि कलि जनम,कुसंगति, मति बिमोह-मद-माति । करत कुजोग कोटि, कयों पैयत परमारथ-पद सांति ॥ २ ॥
सेइ साधु-गुरु, सुनि पुरान श्रुति बूझ्यो राग बाजी ताँति । तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरु-सो, ज्यों दरपन मुख-कांति ॥ ३ ॥
मन का मनोरथ भी विलक्षण है। वह इच्छा तो करता है कि पुण्यों का फल मिले जो मुनियों के मन को भी दुर्लभ है, किंतु पाप करने से उसकी इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती
कर्म-भूमि धर्मक्षेत्र पवित्र भूमि भारतवर्ष में होने पर भी कलियुग में जन्म, दुष्ट लोगों की संगति, अज्ञान घमंड से भ्रमित बुद्धि एवं अनेक बुरे कर्मों के कारण परम पद शान्ति कैसे संभव है
संतों और गुरु की सेवा करने तथा वेद और पुराणों के श्रवण से परम शान्ति का निश्चय हो जाता है जैसे सारंगी बजते ही राग जान लिया जाता है।
हे तुलसी! प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का स्वभाव तो अवश्य ही इच्छित फल वाले कल्पवृक्ष के समान है किन्तु, ऐसा भी है कि जैसे दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब (जिस प्रकार अच्छा या बुरा मुँह बनाकर दर्पण में देखा जायेगा) वह वैसा ही दिखाई देगा इसी प्रकार भगवान् भी हमारी भावना के अनुसार ही फल देंगे
सिद्धग्रंथ मानस के चार श्रोता और चार वक्ता हैं इन्हें तुलसीदास जी ने अद्भुत ढंग से बांधा है
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥122 ग॥
मैं आपसे भली-भाँति निश्चित सिद्धांत कहता हूँ
मेरे वचन असत्य नहीं हैं
जो मनुष्य श्रीहरि का भजन करते हैं वे अत्यंत कठिन संसार सागर को आसानी से पार कर जाते हैं
आचार्य जी ने बताया कि रत्नावली और तुलसी जी कैसे ज्ञान और भक्ति के संगम हो गए
इसके आगे आचार्य जी ने क्या बताया जानने के लिए सुनें