ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4.11।।
प्रस्तुत है सुरभि ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ कृष्ण पक्ष
प्रतिपदा,विक्रम संवत् 2080
तदनुसार 05 -06- 2023
का सदाचार संप्रेषण
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676 वां सार -संक्षेप
1=विद्वान्
इस सदाचार वेला से प्रेरणा लेकर अपने प्रयास से हम लोग अधिक से अधिक मानसिक शक्ति प्राप्त करने की चेष्टा करें इसका लाभ हमें मिल रहा है यह परिलक्षित भी होना चाहिए
परस्पर का हम लोगों का विश्वास अद्भुत है और इसी के बल पर हम लोग राष्ट्रभक्ति और राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित होने की भी चेष्टा करें
हमारा लक्ष्य भी यही कहता है
राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष
हमारा कर्म संपूर्ण प्रामाणिकता (authenticity ) के साथ फलप्रद और समाज के हित में होने वाला हो
हम जहां हैं वहीं समाज है अकर्मण्यता का त्याग करें और कर्म करें
व्यक्तिवादिता कम हो
राजनैतिक विषय,सामाजिक कार्य,धार्मिक कार्यक्रम या अन्यत्र कुछ हो हर जगह राष्ट्रोन्मुखता समाजोन्मुखता झलकनी चाहिए
वैवाहिक कार्यक्रमों में भी आदर्श प्रस्तुत करें
मोहान्धता से बचें
भक्ति और भाव अपने व्यक्तित्व को समाजोन्मुखी राष्ट्रोन्मुखी बनाने का मार्ग है
अकामः सर्वकामो वा मोक्षकाम उदारधीः ।
तीव्रेण भक्तियोगेन यजेत पुरुषं परम् ||
कोई कामना हो या ना हो और सारी कामनाओं की इच्छा हो अथवा मोक्ष की इच्छा हो तो तीव्र भक्ति योग से भगवान श्रीकृष्ण की उपासना करें
आचार्य जी ने श्री हरिकृष्ण सेठ जी का एक प्रसंग बताया जिसमें उन्होंने Clients को भगवान कहा था और अस्वस्थ होने के बाद भी उनकी सेवा हेतु तत्पर थे
ऐसे लोग संसार में यश पाते हैं षड् विकारों से दूर रहते हैं
उन्हें मानस रोग नहीं सताते हैं
धर्म के दस लक्षणों में एक भी हम अपना लें तो हमारे दोष जाने लगेंगे और एक दोष को भी अपनाने की चेष्टा करेंगे तो बाकी दोष भी आने लगेंगे
श्रीरामचरित मानस के पाठ से अधिक से अधिक हमें लाभ प्राप्त करना चाहिए
इस मानस की समीक्षा करते हुए पुस्तक मानस भूषण तिलक में गुरु के लक्षण बताते हुए श्री बैजनाथ दास जी कहते हैं
गुरु बाह्य इन्द्रियों का दमन करने वाला शुद्ध वेश वाला विनीत शुद्ध आचरण वाला सुबुद्धिमान कुलीन सुप्रसिद्ध आदि होता है
इसी प्रकार शिष्य के भी गुण हैं
हम आत्मनिरीक्षण करते रहें
एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥1॥
इस तरह जगत् में सारे जीव रोगी हैं, जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति,वियोग के दुःख द्वारा और भी अधिक दुःखी हो रहे हैं। मैंने ये कुछ ही मानस रोग कहे हैं। ये हैं तो सबको, परंतु इन्हें विरले ही जान पाए हैं
विषयवासनाओं की अति नहीं होनी चाहिए
इसके आगे आचार्य जी ने क्या बताया जानने के लिए सुनें