20.6.23

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया ,विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 20 -06- 2023 का सदाचार संप्रेषण

 अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।


निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।12.13।।


सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।


मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।12.14।।




प्रस्तुत है  ज्ञान -प्रवाह ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल पक्ष

द्वितीया ,विक्रम संवत् 2080

  तदनुसार 20 -06- 2023

का  सदाचार संप्रेषण 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


  691वां सार -संक्षेप

1 :  ज्ञान की नदी



ये सदाचार वेलाएं व्यर्थ नहीं हैं  इसके परिणाम दिखने लगे हैं हम लोग इनमें निहित सदाचारमय विचारों को ग्रहण करने के लिए प्रयत्नशील हैं और इसीलिए प्रतिदिन इनकी  प्रतीक्षा करते हैं

अपने जीवन को सही दिशा और दृष्टि दे पाएं इसका यह उत्तम उपाय है


आचार्य जी की दिशा और दृष्टि सुस्पष्ट है



मनुष्य का स्वभाव है शिक्षा देना और भारतवर्ष में तो अधिकांश लोग शिक्षा देते रहते हैं  इसे ज्ञान का विस्तार कह सकते हैं लेकिन

अधजल गगरी छलकत जाए 

(पूरी गगरिया चुपके जाए)

की तरह 

 पश्चिमी सभ्यता में इससे भिन्नता है


इहां संभु असमन अनुमाना, दच्छ सुता कहुं नहिं कल्याना

मोरेहु कहें न संसय जाहीं, विधि विपरीत भलाई नाहीं



हमें संदेह करना चाहिए परन्तु संदेह होने पर विवेक से काम लेना चाहिए।  संदेह होने पर तुरंत निर्णय लेकर किया गया कार्य हमारे जीवन को नष्ट कर देता है।  अतः विवेक पूर्ण  निर्णय लेकर संदेह को दूर किया जा सकता है।


‘हे हरि ! कस न हरहु भ्रम भारी ।


जद्यपि मृषा सत्य भासे जबलहिं कृपा तुम्हारी।’




हम देखते हैं कि कवि दार्शनिक गोस्वामी तुलसीदास जी के काव्य में रामानुज के विशिष्टाद्वैत की प्रधानता  है


उनकी आत्मनिवेदनात्मक भक्ति वाली 'विनयपत्रिका’ भगवान् राम की सर्वोपरिता का प्रतिपादन है जो विशिष्टाद्वैत का प्रमुख तत्व है


इस प्रन्थ में भगवान राम के ‘ब्रह्मत्व’ का  जगह जगह उल्लेख  है। भगवान् राम ब्रह्म अंशी का ही अंश है।

इसी ग्रंथ में तुलसीदास जी कहते हैं 


‘हे हरि ! कस न हरहु भ्रम भारी ।


जद्यपि मृषा सत्य भासे जबलहिं कृपा तुम्हारी।’



हे हरि ! मेरे इस भ्रम को कि संसार  सत्य है सुख देने वाला  है,क्यों दूर नहीं करते ? यद्यपि यह संसार मिथ्या है, फिर भी  आपकी कृपा के बिना यह सत्य  जैसा ही प्रतीत होता है


अर्थ अबिद्यमान जानिय, संसृति नहिं जाइ गोसाईं।

बिन बाँधे निज हठ सठ परबस परयो कीरकी नाईं।2।



मैं यह जानता हूँ कि शरीर संपत्ति पुत्र पुत्री आदि विषय यथार्थ नहीं हैं, फिर भी इस संसार से छुटकारा नहीं पाता। मैं किसी दूसरे द्वारा बाँधे बिना ही अपने ही अज्ञान से कीर अर्थात् तोते की तरह  बँधा पड़ा हूँ



सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई।

बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई।3।


श्रुति-गुरू-साधु-समृति-संमत यह दृष्य असत दुखकारी।

 तेहिं बिनु तजे , भजे बिनु रधुपति, बिपति सकै को टारी।4।


बहु उपाय संसार-तरन कहँ, बिमल गिरा श्रुति गावैं।

तुलसिदास मैं-मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै।5।



जैसे किसी को सपने में अनेक  रोग हो जायँ जिनसे उसकी मृत्यु तक आ जाए और बाहर से वैद्य अनेक उपाय करते रहें, किन्तु जब तक वह जागता नहीं तब तक उसका दर्द नहीं मिटता

 इसी प्रकार माया के भ्रम में लोग बिना ही हुए संसार के अनेक कष्ट भोग रहे हैं और उन्हें दूर करने के लिये असत्य उपाय कर रहे हैं, लेकिन तत्त्वज्ञान के बिना कभी इनसे छुटकारा नहीं मिल सकता


....

मैं और  मेरा दूर नहीं हो जाता तब तक जीव कभी सुख नहीं पा सकता 


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