22.6.23

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आषाढ़ शुक्ल पक्ष चतुर्थी ,विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 22 -06- 2023

 मैं स्रष्टा का उत्कृष्ट सृजन

 पालन कर्ता का सहयोगी

 मैं हूँ विध्वंस कपाली का

 हूँ सृजन प्रलय का अनुयोगी



प्रस्तुत है  ज्ञान -भातु ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल पक्ष

चतुर्थी ,विक्रम संवत् 2080

  तदनुसार 22 -06- 2023


का  सदाचार संप्रेषण 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


  693 वां सार -संक्षेप

1 : भातुः =सूर्य


हमारा प्रेरक -तत्त्व जाग्रत रहे जिससे हम सांसारिक प्रपंचों में उलझे उलझे ही अपना जीवन व्यर्थ न कर लें हम इन सदाचार संप्रेषणों का आश्रय लेते हैं

आइये अपने कर्तव्यों को करते हुए हनुमान जी की भक्ति में भावित होते हुए  अपनी गति को शक्तियुक्त रखने के लिए  प्रवेश करें आज की वेला में


यदि हम अलग अलग स्थानों पर बिखरे हुए ज्ञान -गरिमा के बिन्दुओं को वाणी या लेखनी के माध्यम से व्यक्त करना सीख लें तो हमारी ही अभिव्यक्तियां हमें आनन्द प्रदान करने लगेंगी

ये शब्द -मूर्तियां हमको दर्शन देकर हमारा ही ज्ञान वर्धन कर देंगी यह अनुभूति ही बता देगी कि हमारे अन्दर ही सब कुछ है

अहं ब्रह्मास्मि

और यह भाव हमारी निराशा समाप्त कर देगा

मैं भारत में जन्मा हूं और उसमें भी उत्तर प्रदेश में इस पर गर्व करें 


अन्तःप्रेरणा से मिले शब्दों को उकेर कर आचार्य जी, जिनका प्रेरक -तत्त्व सदैव जाग्रत रहता है,ने अपने भाव इस  निम्नांकित कविता में व्यक्त किये हैं

प्रस्तुत हैं इसके कुछ अंश


मैं अन्तरतम की आशा हूँ मन की उद्दाम पिपासा हूँ

 जो सदा जागती रहती है ऐसी उर की अभिलाषा हूँ ।


मैंने करवट ली तो मानो 

हिल उठे क्षितिज के ओर छोर

 मैं सोया तो जड़ हुआ विश्व

  निर्मिति फिर-फिर विस्मित विभोर 

मैंने यम के दरवाजे पर दस्तक देकर ललकारा है

मैंने सर्जन को प्रलय-पाठ पढ़ने के लिये पुकारा है

मैं हँसा और पी गया गरल

मैं शुद्ध प्रेम-परिभाषा हूँ, 



मैं अन्तरतम की आशा हूँ ।


मैं शान्ति-पाठ युग के इति का   

 मैं प्रणव-घोष अथ का असीम

मैं सृजन-प्रलय के मध्य सेतु

 हूँ पौरुष का विग्रह ससीम

 बैखरी भावनाओं की मैं

सात्वती सदा विश्वासों की

 मैं सदियों का आकलन बिन्दु

 ऊर्जा हूँ मैं निश्वासों की

 पर परिवेशों में मैं जब तब

 लगता है घोर निराशा हूँ,

 मैं अन्तरतम की आशा हूँ | | २ || 


मैं हूँ अनादि मैं हूँ अनन्त

 मैं मध्यंदिन का प्रखर सूर्य

 मैं हिम-नग का उत्तुंग शिखर

 उत्ताल उदधि का प्रबल तूर्य

 दिग्व्याप्त पवन उन्चास और

 मैं अन्तरिक्ष का हूँ कृशानु

 मैं माटी की सद्गन्ध और

 रस में बसता बन तरल प्राण

 पर आत्म बोध से रहित स्वयं

 मैं ही मजबूर हताशा हूँ,


मैं अन्तरतम की आशा हूँ | | ३ ||


हमें अपना आत्मबोध कभी समाप्त नहीं करना चाहिए

आत्मानन्द की अनुभूति न त्यागें 

पथ भूलना संसारी भाव है


एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥

जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥2॥


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने उपनिषदों की चर्चा की आचार्य जी ने बताया कि क्यों सनातन धर्म सर्वश्रेष्ठ है

हमारा अध्यात्म शौर्य के आवरण में चलता रहा है 

संगठन संयमी व्यक्ति ही कर सकता है

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने और क्या बताया जानने के लिए सुनें आज का यह उद्बोधन