कोलकाता स्थित गोविन्द भवन ट्रस्ट के माध्यम से भगवद्गीता का प्रकाशन 1921 में प्रारम्भ हो गया था लेकिन प्रकाशन में त्रुटियों की ओर संकेत करने पर प्रेस मालिक ने कह दिया कि यदि आपको त्रुटिरहित प्रकाशन चाहिए तो अपनी प्रेस स्थापित कर लें और इस तरह गीता प्रेस की स्थापना गोरखपुर में 29 अप्रैल 1923 को हो गई
प्रस्तुत है अनन्यचित्त ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल पक्ष
नवमी ,विक्रम संवत् 2080
तदनुसार 27-06- 2023
का सदाचार संप्रेषण
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698 वां सार -संक्षेप
1 :एकाग्रचित्त
आज की सदाचार वेला में आत्मसाक्षात्कार के लिए सतत प्रयत्नशील हम शिष्य अत्यन्त उत्साह के साथ उपस्थित हैं। सदाचार हमारे धर्मसूत्रों में विस्तार से वर्णित है मनुस्मृति याज्ञवल्क्य स्मृति वशिष्ठ स्मृति आदि में इसका विशद विस्तृत वर्णन है
इस वेला में आचार्य श्री ओम शंकर जी की आनन्दमयी अभिव्यक्तियां हमें मनुष्यत्व की अनुभूति कराने की प्रेरणा देती हैं l परमपिता की कृपा से हमें अज्ञान रूपी अंधकार दूर करने के पर्याप्त सुअवसर प्राप्त हैं तत्त्वों से भरपूर यह वेला ऐसा ही एक अवसर है संसार में रहते हुए संसारेतर चिन्तन का
आइये इसका लाभ उठाकर शक्ति सामर्थ्य बुद्धि के साथ संसार में अच्छी तरह रहने की हम योग्यता प्राप्त कर लें अपनी जिज्ञासाएं शांत कर लें
संसार बहुत अद्भुत है। यहां अंधेरा भी है उजाला भी है सुख है तो दुःख भी है इसका निर्माण होता है फिर यह नष्ट हो जाता है
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।15.1।।
भगवान् कह रहे हैं
ऊपर की ओर मूल वाले एवं नीचे की ओर शाखाओं वाले जिस संसार रूपी अश्वत्थ वृक्ष को अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पर्ण हैं, उस वृक्ष को जो जानता है, वह ही सम्पूर्ण वेदों को जानने वाला है
इस अति दृढ़ मूल वाले वृक्ष को दृढ़ असङ्ग शस्त्र से काटकर उस पद को खोजना चाहिए जिसको पाकर पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं।
उस परम धाम को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है और न चन्द्रमा और न ही अग्नि
और इसे प्राप्त कौन व्यक्ति करते हैं ?
इसके पात्र हैं वे जो
मान और मोह से रहित हो गये हैं, जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो सारी कामनाओं से रहित हो गये हैं, जो सुख-दुःख वाले द्वन्द्वों से मुक्त हैं
(निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा
अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै
र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।15.5।।)
जिनकी संसारेतर समझ विकसित हो जाती है वे शरीर को अपनी मनोभूमिका के साथ संचालित करते हैं जबकि मन बहुत चंचल होता है
नि:सन्देह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु उसे अभ्यास और वैराग्य के द्वारा वश में किया जा सकता है। यह जीवन की अद्भुत स्थिति है अभ्यास लेकिन विरक्ति के साथ
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।
आचार्य जी ने परामर्श दिया
कि नकारात्मक सोच हटाएं संघर्षशील लोगों की जीवनियां देखें और
नित्य प्रातः जल्दी जागें तो हमारे पास असीमित शक्तियां आ जाएंगी
आचार्य जी ने एक सज्जन श्री नारायण दास जी की चर्चा की, जिनके पुत्र (देहरादून में निवास )अभी भी आचार्य जी के संपर्क में हैं, जो कहते थे केवल एक सद्गुण अपना लें कि सूर्योदय से पहले जागें तो बहुत कुछ प्राप्त कर लेंगे
और अधिक जानने के लिए सुनें यह उद्बोधन