28.6.23

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आषाढ़ शुक्ल पक्ष दशमी ,विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 28-06- 2023

 प्रस्तुत है अनन्यचिन्त ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल पक्ष

दशमी ,विक्रम संवत् 2080

  तदनुसार 28-06- 2023


का  सदाचार संप्रेषण 

 

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  699 वां सार -संक्षेप

1 :एकाग्रचित्त



आत्मजागरण के इस प्रकल्प में  आचार्य श्री ओम शंकर जी   (    को वा गुरुर्यो हि हितोपदेष्टा )  के सदाचारमय विचार हमें मनुष्यत्व की अनुभूति कराने की प्रेरणा देते हैं l  हनुमान जी की कृपा से हमें अज्ञान रूपी अंधकार दूर करने के पर्याप्त सुअवसर मिलते  हैं  तत्त्वों की प्रचुरता लिए यह वेला ऐसा ही एक अवसर है 

आइये  बिना संदेह के इसका लाभ  उठाकर  शक्ति  बुद्धि सामर्थ्य के साथ संसार में  अच्छी तरह रहने की संकटों का सामना करने की शान्ति और सुख के साथ रहने की हम योग्यता प्राप्त कर लें



कल भैया मनोज अवस्थी जी, गाजियाबाद में रह रहे भैया अशोक गुप्त जी अपने पिता  श्री नेम कुमार गुप्त जी (पूर्व शिक्षक बीएनएसडी इंटर कॉलेज) एवं सुपुत्र हर्षित जी (आईआईटी मुंबई) के साथ  सरौंहां में आचार्य जी से मिले


इसके बाद लखनऊ से भैया सुरेश गुप्त जी  जिनके लिए सत्य है कि

यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।


समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4.22।।,


भैया आशु शुक्ल जी भैया आशु दुबे जी भैया भरत जी भैया अरविन्द जी भैया प्रदीप जी भी आचार्य जी से मिले


रहिमन यों सुख होत है, बढ़त देखि निज गोत।

ज्यों बड़री अंखियां निरखि, आंखिन को सुख होत।।

कुल की वृद्धि अच्छा संकेत है

 संगठन अत्यावश्यक है लाभप्रद है उसमें सात्विकता और  बिना मालिन्य का परिवारभाव भी अनिवार्य है

समाज के प्रति  राष्ट्र के प्रति हमारा एक कर्तव्य है लेकिन इन सबके लिए अपने शरीर को साधना होता है 

अपना शरीर एक हवनकुंड की तरह है  पवित्र मंदिर की तरह है खानपान में सतर्क रहें मंदिर में कचरा न डालें खानपान पवित्र रहना चाहिए

विजातीय द्रव्य का त्याग करें


जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।

संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥


प्रातः जल्दी जागना भी अनिवार्य है  शक्ति संचित करने के लिए भी यह अनिवार्य है 

ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।


ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।।


जिस यज्ञ में अर्पण भी ब्रह्म है, हवी भी ब्रह्म ही है  ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति की क्रिया भी ब्रह्म है, ऐसे यज्ञ को करने वाले जिस व्यक्ति की ब्रह्म में ही कर्म-समाधि हो गयी हो , उसके द्वारा प्राप्त करने योग्य फल भी ब्रह्म ही है।


अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।


सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः।।4.30।।



आचार्य जी ने बताया कि 

तुलसीदास जी ने मानस में प्रारम्भ में ही गुरु की भी वन्दना की है


गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥

तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥


श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥

दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥

इसके आगे आचार्य जी ने क्या बताया आज आचार्य जी कहां जा रहे हैं जानने के लिए सुनें