2.7.23

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आषाढ़ शुक्ल पक्ष चतुर्दशी ,विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 02-07- 2023

 प्रस्तुत है अनन्यहृदय ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आषाढ़ शुक्ल पक्ष

चतुर्दशी ,विक्रम संवत् 2080

  तदनुसार 02-07- 2023


का  सदाचार संप्रेषण 

 

https://sadachar.yugbharti.in/


  703 वां सार -संक्षेप

1 :एकाग्रचित्त


आत्मज्ञान के इस नित्य कृत्य में  आत्मनिष्ठ आचार्य जी   के सदाचारमय विचार हमें मनुष्यत्व की अनुभूति कराके समाज और राष्ट्र के प्रति अपने दायित्व का बोध कराते हैं

 भगवान् राम की विशेष कृपा  हमारा अज्ञान  मिटाने के हमें तात्त्विक शक्तियां प्रदान करने के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराती है

 यह वेला ऐसा ही एक अवसर है 

आइये पूर्ण  विश्वास  कर इससे लाभ  उठाकर    आनन्द के पथ का अनुसरण कर लें


किसी भी संकल्प को सिद्धि तक पहुंचाने के लिए साधना की आवश्यकता होती है और वह साधना परमात्मा की कृपा से ही होती है इसलिए इष्ट की शरण में जाएं निराशा का चिन्तन त्यागें 


पढ़ना गुनना चिन्तन मनन करना महत्त्वपूर्ण विषयों को व्याख्यायित करना

शिष्य के मन में सीखने की इच्छा को जाग्रत करना

 एक शिक्षक का धर्म है


एक अच्छा शिक्षक एक छात्र के जीवन में बहुत बड़ा बदलाव ला सकता है


शिक्षा और शिक्षक संसार की संस्कृति का सत्य है

देखा जाए तो हर व्यक्ति शिक्षक है और उसे यदि यह अनुभव है  तब उसका शिक्षकत्व  उसे राह से भटकने ही नहीं देगा



ऐसे शिक्षक भी हैं जिनका उद्देश्य होता है शिक्षकत्व भूलकर नौकरी करना धन कमाना सुख साधन चाहना

स्वार्थ के लिए चापलूसी करना और

फिर वे सुख साधन के क्षरण पर विलाप करते हैं




लेकिन कुछ ऐसे शिक्षक हैं जो संसार को राह दिखाते हैं अपने गायन से संसार को रागमय बना देते हैं

आचार्य जी ऐसे ही एक शिक्षक हैं उन्हें लगता है हम राष्ट्र के प्रति निष्ठावान् रहें

शौर्यप्रमंडित अध्यात्म के महत्त्व को समझें अपने प्रचुर साहित्य का अध्ययन कर उससे लाभ उठाएं खानपान सही रखें संगठित रहें  दुष्टों से सजग सचेत रहें Relay Race की तरह baton दूसरे को सौंपें 

उनका उद्देश्य है संसार के संघर्षों को चुनौती के रूप में लेना अंधकार को मिटाना उनका धर्म है 

आचार्य जी कहते हैं


मैं अमा का दीप हूँ जलता रहूँगा

चाँदनी मुझको न छेड़े आज, कह दो |

जानता हूं अब अन्धेरे बढ़ रहे हैं 

क्षितिज पर बादल घनेरे चढ़ रहे हैं

आँधियाँ कालिख धरा की ढो रही है

 व्याधियाँ हर खेत में दुःख बो रही है

 फूँक दो अरमान की अरथी हमारी

मैं व्यथा का गीत हूँ चलता रहूँगा।

मैं अमा का दीप..... ।।१।। 



मानता हूँ डगर  यह दुर्गम बहुत है

प्राण का पाथेय चुकता जा रहा है 

प्यास अधरों की जलाशय खोजती है

भाव का अभियान रुकता जा रहा है

काल से कह दो कि अपनी आस छोड़े

 हिमशिखर का मीत हूँ गलता रहूँगा

मैं अमा का दीप......।।२।।


रात प्रात का संघर्ष संसार में चल रहा है हमारा दीपक की भांति एक कर्तव्य है




कुछ ऐसे शिक्षक हैं जो संसार के सत्य को समझ लेते हैं लेकिन किसी को बताते नहीं हैं मौन रहते हैं


इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बताया कि


करुण रस में भी आनन्द है

दशरथ कहते हैं


हा रघुनंदन प्रान पिरीते। तुम्ह बिनु जिअत बहुत दिन बीते॥

हा जानकी लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर॥4॥


राम राम कहि राम कहि राम राम कहि राम।

तनु परिहरि रघुबर बिरहँ राउ गयउ सुरधाम॥155॥


जिअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा॥

जिअत राम बिधु बदनु निहारा। राम बिरह करि मरनु सँवारा॥1॥


जीने और मरने का फल तो दशरथ जी ने ही प्राप्त किया , जिनका यश अनेक ब्रह्मांडों में छा गया। जीते जी तो श्री राम के विधु -तुल्य मुख को देखा और श्री राम के विरह को निमित्त बनाकर अपना मरण भी सुधार लिया


आचार्य जी ने भैया राघवेन्द्र जी का नाम क्यों लिया चामण्ड राय कौन कहलाते हैं आदि जानने के लिए सुनें