18.7.23

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का श्रावण शुक्ल पक्ष प्रतिपदा विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 18-07- 2023 का सदाचार संप्रेषण

 प्रस्तुत है विचेतस् -शरण्य ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण शुक्ल पक्ष प्रतिपदा विक्रम संवत् 2080

  तदनुसार 18-07- 2023


का  सदाचार संप्रेषण 

 

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  719 वां सार -संक्षेप

1 : विचेतस् =अज्ञानी

    शरण्य     =शरणगृह




अर्जुन के प्रश्न


एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।


येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।12.1।।


जो भक्त आपकी उपासना करते हैं और जो भक्त अक्षर, और अव्यक्त की उपासना करते हैं, उन दोनों में कौन उत्तम  है।

के उत्तर में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं


ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।


अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।12.6।।



जो भक्तजन मुझे ही परम लक्ष्य मानते हुए सारे कर्मों को मुझे अर्पित कर अनन्ययोग के द्वारा मेरे सगुण रूप का ही ध्यान करते हैं


तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।


भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्।।12.7।।


 जिनका चित्त मुझ में ही स्थिर है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार से उद्धार करने वाला होता हूँ।

आचार्य जी ने परामर्श दिया कि प्रतिदिन अपने इष्ट का ध्यान करें धरती मां के प्रति कृतज्ञता दर्शाएं 

इस तरह के चिन्तन को प्रखर करने का ही आचार्य जी प्रतिदिन इन वेलाओं के माध्यम से प्रयास कर रहे हैं हमें इनका लाभ उठाना चाहिए 

हमारी संस्कृति हमारे विचार हमारी सभ्यता के मूल में अध्यात्म है नई पीढ़ी को सामान्य रूप से वेद उपनिषद् आदि की जानकारी देनी होगी  और उसके पहले हमें इन्हें जानने की आवश्यकता है

वेद अर्थात् ज्ञान और ज्ञान भी इन्द्रियातीत ज्ञान

वेदों का गद्य में व्याख्या वाला खण्ड ब्राह्मण ग्रंथ कहलाता है। ब्राह्मण, वैदिक वाङ्मय का दूसरा भाग है। इनमें देवताओं और यज्ञ विधियों की व्याख्या की गयी है l

इन्हीं सब बातों को भगवान शंकराचार्य ने समझा उन्होंने सिद्ध किया सर्वत्र ब्रह्म है 

वे कैसे संन्यासी बने इसकी एक कथा है



भगवान शंकर अपनी माता के साथ पूर्णा नदी में स्नान के लिए गए जहाँ उनका पैर फिसल गया और उन्हें लगा कि एक मगरमच्छ ने उनका पैर पकड़ लिया है। वे  ज़ोर से चिल्लाये, ‘‘मां, मुझे मगरमच्छ खींच रहा है,वह मुझे खा जायेगा, मुझे आप संन्यासी बन जाने की आज्ञा दे दें। माता के सामने और कोई विकल्प नहीं था। उन्होंने हां कर दी। भगवान शंकर ने नदी में ही अपथ-संन्यास की दीक्षा अपने मन ही मन में ले ली। अवश्यम्भावी मृत्यु के समय लिए गए संन्यास को अपथ संन्यास कहते हैं। ऐसा कहते हैं मगरमच्छ ने उन्हें तुरन्त छोड़ दिया।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने श्रीभागवतहृदय की चर्चा की

आचार्य जी ने विचलन के बारे में क्या बताया पुस्तक मृत्यु के उस पार की चर्चा में आचार्य जी ने क्या बताया

आदि जानने के लिए सुनें