28.7.23

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का अधिक श्रावण मास शुक्ल पक्ष एकादशी विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 28 जुलाई 2023 का सदाचार संप्रेषण 729 वां सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है षट्प्रज्ञ ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज अधिक श्रावण मास शुक्ल पक्ष एकादशी विक्रम संवत् 2080  तदनुसार 28 जुलाई 2023 का  सदाचार संप्रेषण 

  729 वां सार -संक्षेप

1 : जो छः विषयों अर्थात् चार पुरुषार्थ लोकप्रकृति ब्रह्मप्रकृति से सुपरिचित हो




इन सदाचार संप्रेषणों अर्थात् आर्ष परम्परा की कथाओं के माध्यम से आर्ष परम्परा को विस्तार देते हुए आचार्य जी हमें संकेत     यत् स्वल्पमपि तद्बहु    करते हैं कि हम आत्मबोध जाग्रत रखें आत्मविश्वासी बने रहें अपनी परम्पराओं और आदर्श सिद्धान्तों का अनुसरण करें

और सात्विक चिन्तन को व्यक्त करते, व्यवहार और सिद्धान्त के समन्वय को दर्शाते अपने आधार ग्रंथों का अध्ययन अवश्य करें


आज के समय में भी इस प्रकार के ग्रंथों को रचने वाले  अपने यहां बहुत सारे रचनाकार हैं लेकिन वे चर्चित नहीं हैं

जो चर्चित हैं वे तो अपना प्रचार कर हमें लाभ पहुंचा ही रहे हैं लेकिन जो एकांत में बैठे हुए हैं उनके तत्व से पूर्ण गहन चिन्तन को प्राप्त करने की  भी हमें चेष्टा करनी चाहिए


हमें गहराई और विस्तार दोनों से संपर्कित रहना है

श्रीराम की कथा अत्यन्त तत्वपूर्ण और गूढ़ है


बालकांड में बहुत से विचार हैं  व्यवहार हैं कथाओं के संकेत हैं तुलसीदास जी ने अयोध्या कांड में कथा का सूत्र    पकड़ लिया और उस कथा को एक ऊंचाई पर पहुंचा दिया


धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी॥

पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू॥3॥



धर्मधुरीण प्रभु रामजी ने धर्म की गति को जानकर माता से अत्यंत कोमल वाणी में कहा- हे माता! पिताजी ने मुझको वन का राज्य दिया है, जहाँ हर तरह से मेरा  बहुत बड़ा काम बनने वाला है


यह भारतवर्ष का आदर्श उदाहरण है


निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।

सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥9॥

यह हमारा सिद्धान्त सूत्र है निशाचर अपना रूप बदल बदल कर भारतभूमि को दूषित करते रहे हैं 

और इनसे हमारा संघर्ष हमारा कर्म है हमारा धर्म है 

भरत जी महाराज का खड़ाऊं  वाला प्रसंग अद्भुत है ऐसी आदर्श रही है हमारी परम्परा


भगवान् राम ने आर्ष परम्परा का सम्मान करते हुए अपना उद्देश्य पूरा किया

आर्ष परम्परा व्यवस्था के संशोधन की परम्परा है


साधुशीलवान् अंग के अत्यन्त दुष्ट पुत्र वेन के अत्याचारों से तंग आकर ऋषियों ने हुंकार-ध्वनि से  उसे मार डाला था।


आर्ष परम्परा चिन्तन को गहराई  और विस्तार देती है

इसे विस्मृत करने पर हम मार्गान्तरित हो गये और हमारा विस्तार संकुचित हो गया 


लेकिन हमें इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए आज भी अनेक लोग साधनारत हैं

शौर्यप्रमंडित अध्यात्म आज की आवश्यकता है हमें आज भी अस्त्र,शस्त्र और बाहुबल की आवश्यकता है

सही दिशा में अपना संघर्ष जारी रखें

इसके अतिरिक्त मोहब्बत की दुकान से भ्रमित न होने का आशय क्या है डा सैफ़ुद्दीन जिलानी कौन हैं भोजनालय में चार दिन कौन रहा था सरभंगा का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें