श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।
अच्छी तरह से आचरण में लाये हुए दूसरे के धर्म की अपेक्षा गुणों की कमी वाला अपना धर्म श्रेष्ठ है।
अपने धर्म में मर जाना भी कल्याण करता है परधर्म भय देने वाला होता है
हम धर्म अर्थात् कर्तव्य (जो करने योग्य है ) का पालन करें इसके लिए हमारे यहां बहुविध ग्रंथ हैं गृहस्थ यदि निर्विकल्प रहता है तो वह अधार्मिक कहलायेगा
धार्मिक पुरुष को भी व्यावहारिक पथ पर चलना चाहिए
प्रस्तुत है पालयितृ ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज अधिक श्रावण मास कृष्ण पक्ष त्रयोदशी विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 13 अगस्त 2023 का सदाचार संप्रेषण
*745 वां* सार -संक्षेप
1: संरक्षक
भक्ति और शक्ति जितने सहज सरल विषय लगते हैं उतने ही तात्विक भी हैं भक्ति अर्थात् विश्वास का बोध यदि हमें है तो शक्ति स्वयमेव हमको शरण देने हेतु प्रस्तुत हो जाती है
विश्वास ऐसा कि
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।।
सारे धर्मों का परित्याग कर तुम मेरी शरण में आ जाओ,और इस तरह मैं तुम्हें सारे पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक कतई न करो
जब भगवान कृष्ण के समझाने पर भक्त अर्जुन की सारी उलझनें समाप्त हो जाती हैं
हम बिना भ्रम के उसकी शरण में पहुंच जाएं जिस पर विश्वास किया है जैसा विश्वास अर्जुन ने किया है
आचार्य जी ने नीराजना से नीराजन तक की अद्भुत कथा बताई शक्ति की उपासना में होने वाली आरती नीराजना /नीराजन कहलाती है
आचार्य जी ने बताया कि बोध चिह्न में भारत सूर्य पुस्तक का संयोजन किया गया प्रतिदिन एक सुविचार लिखा जाने लगा प्रार्थना भी बन गई उस समय के अद्भुत संस्मरण रहे हैं
इसी तरह के अद्भुत संस्मरण हमें लिख लेने चाहिए लेखन -योग महत्त्वपूर्ण है
इसी लेखन -कार्य पर आधारित 29 दिसंबर 2009
को लिखी
एक स्वरचित कविता आचार्य जी ने सुनाई
लिखने के लिए कलम लेकर बैठा तो हूं
पर क्या लिख दूं यह सचमुच एक समस्या है
लिखना लिखकर पढ़ना पढ़पढ़ कर फिर लिखना
अब लगता है यह भी तो एक तपस्या है
तप के प्रकार अब तक जो सुने समझ पाये
उनमें तन मन को ताप तप्त करना भर है
पर लेखन- तप कुछ ऐसा अद्भुत परिष्कार
इसमें आनन्द उर्मियों का मानस -सर है
यह मन का मानस दिव्य दान है स्रष्टा का
इसकी अनुभूति अनोखी है वर्णनातीत
इसमें जैसे भविष्य के सपने दिखते हैं
कुछ वैसा ही उत्सव सा लगता है अतीत
बस इसीलिए लेखक आनन्दित रहता है
उसको दुनिया बस कुछ ही देर नचाती है
पर जैसे ही लेखनी उठाता उसका मन
दुनिया उससे बचती भी और बचाती है
यह कलम जहां भी मन से एकाकार हुई
सर्जन में प्रलय प्रलय में सर्जन रच जाता
लहरों पर ज्वालामुखियां आग उगलती हैं
विश्रांत गगन में भीष्ण गर्जन मच जाता.....
इस कविता का शेष भाग क्या है आचार्य आनन्द जी की चर्चा क्यों हुई आदि जानने के लिए सुनें