सनातन शील संयम शौर्य की पहचान हिंदू है,
अपरिमित धैर्य दृढ़ता शक्तियों की खान हिंदू है,
न जिसका आदि उसका अंत फिर कैसे भला संभव,
जगत को ज्ञात हो अमरत्व की संतान हिंदू है।
प्रस्तुत है उदितोदित ¹ श्री ओम शङ्कर जी का आज श्रावण मास शुक्ल पक्ष प्रतिपदा विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 17 अगस्त 2023 का सदाचार संप्रेषण
*749 वां* सार -संक्षेप
1: शास्त्रों से भलीभांति परिचित
हम राष्ट्रभक्त कर्मशील योद्धाओं के मार्गदर्शन के लिए आचार्य जी पुनः सदाचार वेला में उपस्थित हैं आइये समय का सदुपयोग करते हुए व्यक्तिगत स्वार्थ को दरकिनार करते हुए उनसे मार्गदर्शन प्राप्त कर हम अपने कार्य और व्यवहार को समाजोन्मुखी राष्ट्रोन्मुखी बनाने का प्रयास करें जिससे समाज और राष्ट्र का तानाबाना उदात्त बन सके
हम चिन्तन मनन अध्ययन स्वाध्याय निदिध्यासन में रत हों हम अपनी भीरुता पराश्रयता समाप्त कर सकें
हम रजोगुणी स्वभाव से बचें सद्गुण अपनाएं
हमारा भारतीय जीवन दर्शन पाश्चात्य जीवन से भिन्न है हम जीवन को यज्ञ मानते हैं वे उपभोग मानते हैं
कई विषयों पर विस्तृत ज्ञान प्रदान करने वाले शास्त्रों और अन्य ग्रंथों में कर्म के सिद्धान्त को अपनी शैली में व्याख्यायित किया गया है
शौर्यप्रमंडित अध्यात्म के अद्भुत ग्रंथ श्रीमद्भग्वद्गीता में
कर्मानुराग कर्मशीलता कर्मसिद्धान्त का विस्तृत वर्णन है
जब हम संकट में आते हैं तो आचार्य जी हमें गीता के दूसरे अध्याय का अध्ययन करने के लिए कहते हैं गीता का दूसरा अध्याय गीता का सार संक्षेप है
इसी दूसरे अध्याय में
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्।।2.54।।
भगवान कृष्ण से अत्यन्त प्रेम करने वाले अर्जुन कहते हैं - हे केशव ! परमात्मा में स्थित स्थिर बुद्धि वाले व्यक्ति के क्या लक्षण हैं? वह कैसे बोलता, बैठता और चलता है?
श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।
जो सारी कामनाओं का त्याग कर देता है और अपने आपसे अपने आप में ही सन्तुष्ट रहता है, वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है
स्थितप्रज्ञ परिस्थितियों को अच्छी तरह जानता है संसार असंसार को जानता है
राग, भय और क्रोध से सब प्रकार से रहित हो गया है, वह मनुष्य स्थिरबुद्धि कहलाता है
लेकिन क्रोधरहितता की परिभाषा अलग है हमारे अन्दर तेजस्विता झलझला रही हो तो कोई हमें आंखें नहीं दिखा सकता
स्थितप्रज्ञता से किसी के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव आ जाता है
भक्त परम्परा में महान भक्त आचार्य श्री माधवेन्द्रपुरी कहते थे
सन्ध्यावन्दन भद्रमस्तु भवतो भोः स्नान तुभ्यं नमो । भो देवाः पितरश्च तर्पणविधौ नाहं क्षमः क्षम्यताम् ॥ यत्र क्कापि निषद्य यादव कुलो त्तमस्य कंस दविषः । स्मारं स्मारमद्यं हरामि तदलं मन्ये किमन्येन मे ॥
मेरी त्रिकाल वन्दनाओं , तुम्हारी जय । हे स्नान, तुम्हें प्रणाम । हे देव पितृ जन , अब मैं आप लोगों के लिए तर्पण करने में असमर्थ हूँ। अब तो मैं जहाँ भी बैठता हूँ, श्रीकृष्ण का ही स्मरण करता हूँ और इस तरह मैं अपने पापयुक्त बन्धन से मुक्त हो सकता हूँ। मैं सोचता हूँ कि मेरे लिए यही पर्याप्त है l
हम इन विषयों को शुद्ध भाव से, यथारूप, और अधिक संस्कारित करते हुए अपने भीतर प्रविष्ट कराकर मानसिक शक्ति बौद्धिक प्रखरता प्राप्त करने की और शौर्य का उत्साह जाग्रत करने की चेष्टा करें
हम लेखन- योग के योगी बनकर अपनी अभिव्यक्तियों का स्वयं आनन्द लें अपनी अभिव्यक्तियां भी हमारा मार्गदर्शन करती हैं प्रतिस्पर्धा स्वयं से करें तो आनन्द आयेगा और अधिक क्या कर सकते हैं इस पर चिन्तन मनन करें किसी से तुलना न करें
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने अपने आचार्य श्री माता प्रसाद जी की चर्चा क्यों की भैया पंकज श्रीवास्तव जी का नाम क्यों आया जानने के लिए सुनें