प्रस्तुत है सञ्चारक ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज भाद्रपद मास कृष्ण पक्ष द्वादशी विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 11 सितम्बर 2023 का सदाचार संप्रेषण
*774 वां* सार -संक्षेप
1: पथ -प्रदर्शक
हम संवेदनशील मनुष्यों को अनेक सांसारिक चिन्ताएं समय समय पर सताती रहती हैं और ऐसे में यही लगता है कि हर समय प्रसन्न कैसे रहा जा सकता है
सदा मुस्कराना महमहाना अर्थात् सुगंधि देना खिलखिलाते रहना बैराग को राग सुनाना आत्मदीप होना भयानक रात में सुर सजाना सिन्धु से बिन्दु का मन मिलाना निर्लिप्त भाव से अपने सत्कर्मों से संसार में प्रकाश फैलाकर चिर निद्रा को सहर्ष स्वीकारना कठिन काम है लेकिन यही मनुष्य का तात्विक बोध है
भयानक भय या परम आनन्द की उपस्थिति दोनों अवस्थाएं अद्भुत हैं और एक सम पर जाकर मिलती हैं अध्यात्म का चिन्तन यही है
अध्यात्म शैथिल्य निराशा कर्महीनता नहीं है अध्यात्म कर्म का एक महान यज्ञ है
हम यज्ञमयी संस्कृति के उपासक हैं
अतः याजक पूजक की भूमिका में रहते हुए हमें कर्मशील रहना चाहिए
राह के राही के रूप में राह का आनन्द लेना चाहिए
सनातन धर्म में इसका बहुत विस्तार है भ्रम अद्भुत है भय जब चरम पर पहुंच जाता है और उसे नाम मात्र का भी आश्रय मिल जाता है तो ज्ञान के चक्षु खुलने लगते हैं
स्रष्टा अपनी रची सृष्टि को द्रष्टा रूप में देखते देखते जब संतृप्त हो जाता है तो विलयन प्रारम्भ हो जाता है
ये सब तात्विक विषय हैं
संसार और सार दोनों ही विषयों को समेटे हुए हौसला देती एक कविता जिसे आचार्य जी ने रचा है अद्भुत बन पड़ी है
इसकी कुछ पंक्तियां हैं
गीत गाते रहो गुनगुनाते रहो
सांस जब तक सदा मुस्कराते रहो
गीत गाते रहो
गुदगुदाती जगाती प्रभा प्रात में
थपकियां दे सुलाती अमा रात में
इसकी शेष पंक्तियों के लिए सुनें यह संप्रेषण