🔶श्री गणेशाय नमः🔶
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो ।
प्रस्तुत है यजुर्विद् ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज भाद्रपद मास शुक्ल पक्ष चतुर्थी विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 19 सितम्बर 2023 का सदाचार संप्रेषण
*782 वां* सार -संक्षेप
1 यज्ञीय विधि का ज्ञाता
स्थान :उन्नाव
यदृच्छातस् सदाचारमय विचारों का संप्रेषण हमें अत्यन्त सरलता से प्राप्त हो जाता है यह हमारा सौभाग्य है आइये आत्मस्थ होकर आत्मानन्द के लिए इस वेला में प्रवेश कर जाएं जिसमें सद् विचारों का अजस्र प्रवाह हमें सांसारिक प्रपंचों में उलझे रहने के बाद भी अध्यात्मोन्मुखी बना देता है
अध्यात्म महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह हमें संसार में रहने का, समस्याओं को दूर करने का उपाय बताता है इसके द्वारा हमें शक्ति, सामर्थ्य, शान्ति,संतोष प्राप्त होता है
भारतीय विचारधारा अद्भुत है हम सूर्य को देवता मानते हैं हमारे यहां जल के देवता हैं अग्नि वर्षा वायु आदि के देवता हैं
कोई भी परालौकिक शक्ति का पात्र देवता है और इसलिये पूजनीय है।
हमारे यहां 33 कोटि देवी देवता हैं इनमें 12 आदित्य,11 रूद्र,8 वसु और 2 अश्विनी कुमार हैं।
यही सनातन धर्म है
यह धर्म हमें आत्मज्ञान सिखाता है
जिसके द्वारा अपने दृष्टिकोण में अन्तर लाकर हम दुःखों से दूर रह सकते हैं
गीता में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के शोक मोह के मूल कारण अर्थात् आत्मअज्ञान को ही दूर करने का प्रयत्न करते हुए कहते हैं
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।2.11।।
जिन व्यक्तियों के लिए शोक करना उचित नहीं है, उनके लिये तुम शोक करते हो जब कि ज्ञानियों जैसे वचन कहते हो
लेकिन ज्ञानी पुरुष मृत और जीवित दोनों के लिये शोक नहीं करते हैं
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.30।।
यह देही अर्थात् देह को धारण करने वाला सबके शरीर में सदा ही अवध्य है इसे मारा नहीं जा सकता अतः समस्त प्राणियों के लिए तुम शोक करो यह उचित नहीं है
जो व्यक्ति मान, मोह से रहित हो गये हैं, जिन्होंने आसक्ति द्वारा होने वाले दोषों पर विजयश्री प्राप्त कर ली है जो नित्य-निरन्तर परमात्मा में लीन हैं , जो सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गये हैं, जो सुख और दुःख वाले द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं, ऐसे मोहरहित साधक भक्त उस परमात्मा को प्राप्त होते हैं
यह बात हम एक दूसरे को समझा सकते हैं समझाते भी हैं भारत में तो प्रायः सब एक दूसरे को सांत्वना देना जानते ही हैं परस्पर का यह संसारी भाव संसार से तिरने का एक माध्यम है
किसी भी परिचित को हमें आत्मबोधित करने का प्रयास त्यागना नहीं चाहिए
आचार्य जी ने संगठन,जो कलियुग में अत्यन्त महत्त्व का है,के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा इसमें एक का भाव दूसरे के भाव से संयुत रहे यह अनिवार्य है
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया विनय वर्मा जी की चर्चा क्यों की जानने के लिए सुनें