26.9.23

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का भाद्रपद मास शुक्ल पक्ष एकादशी विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 26 सितम्बर 2023 का सदाचार संप्रेषण *789 वां*

 युगभारती के मूल में प्रेमाम्बु-सरिता बह रही है 

और हम सबके सुरों से स्यात् यह ही कह रही है,

कि," ओ ! भरत भू के सुतो जागो उठो उद्बुद्ध हो खुद 

और इस बुद्धत्व का शौर्याग्नि से शृंगार कर दो। "



प्रस्तुत है सत्याभिसन्धि ¹  आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज  भाद्रपद मास शुक्ल पक्ष एकादशी विक्रम संवत् 2080  तदनुसार 26 सितम्बर 2023 का  सदाचार संप्रेषण 

  *789 वां* सार -संक्षेप


 1 = अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने वाला 


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इस अद्भुत संसार के रहस्य की ज्ञीप्सा रखने वाले  अद्भुत विलक्षण शक्तियों से सम्पन्न हम संसारी लोग कुछ ऐसे सुअवसरों का लाभ प्राप्त कर लेते हैं जो हमें ऊर्जा उत्साह उमंग से भर देते हैं और उसकी अनुभूति लम्बे समय तक होती रहती है

ऐसा ही एक सुअवसर युगभारती के राष्ट्रीय अधिवेशन के रूप में परसों हमें प्राप्त हुआ जो एक अत्यन्त सफल कार्यक्रम था



रहिमन यो सुख होत है बढ़त देखि निज गोत 


ज्यों बड़री अँखियाँ निरखि आँखिन को सुख होत



ऐसे अवसरों का हमें अवश्य लाभ प्राप्त करना चाहिए

परिस्थितियां अनुकूल हों या प्रतिकूल संसार के साथ साथ संसारेतर चिन्तन के लिए अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है और अध्ययन के लिए हमारे पास तो अद्भुत साहित्य का भंडार है जो विश्व में अन्यत्र है ही नहीं


हमारे साहित्य में वेदों,ब्राह्मणों, आरण्यकों,  उपनिषदों, पुराणों द्वारा जगत की उत्पत्ति जीव का जगत में व्यवहार तथा जगत के मूलाधार परमात्मा का तत्वज्ञानात्मक विश्लेषण किया गया है


ज्ञान, जिससे हमारे अन्दर ऐसा भाव जाग्रत हो जाए कि हमें कुछ चाहिए ही नहीं, ज्ञान है




 किं कारणं ब्रह्म कुतः स्म जाता जीवाम केन क्व च संप्रतिष्ठा। अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम्॥१॥


(श्वेताश्वतरोपनिषद्)

ब्रह्म की चर्चा करते हुए ऋषि पूछते हैं : क्या ब्रह्म जगत का कारण है?

 हम कहाँ से उत्पन्न हुए, किसके द्वारा हम जीवित रहते हैं और अन्त में किस में विलीन हो जाते हैं?

 और यह भी बताएं कि वह कौन अधिष्ठाता है जिसके मार्गदर्शन में हम सुख-दुःख के विधान का पालन कर रहे हैं



सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।....

यह धीरज कैसे आ सकता है


औपनिषदिक चिन्तन से यह धीरज आ सकता है

मैत्रेयी- याज्ञवल्क्य यम- नचिकेता संवाद भी इसी विषय पर है


इसी तरह मुण्डकोपनिषद् में शौनक की इस जिज्ञासा के शमन में कि "किस तत्व के जान लेने से सब कुछ जान लिया जाता है

ऋषि अंगिरा  ने उसे ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया जिसमें उन्होंने विद्या के परा और अपरा भेद करके वेद वेदाङ्ग को अपरा और उस ज्ञान को पराविद्या नाम दिया जिससे अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है

यह जिज्ञासा अद्भुत है और मनुष्य को ही मिली है

मुक्त होने का भाव उसके मन में रहता है



को छूट्यौ इहि जाल परि कत कुरंग अकुलात।

ज्यौं-ज्यौं सुरझि भज्यौ चहत त्यौं-त्यौं उरझत जात॥


यही संसार है इसलिए मुक्त होने के लिए आत्मस्थ होना आवश्यक है

ऐसा अद्भुत है हमारा हिन्दुत्व

रूपी वटवृक्ष जिसके बीज से लेकर विस्तार तक का चिन्तन भी हमारे लिए आवश्यक है

अपने धर्म कर्म चिन्तन विचार रहन सहन को परिष्कृत करने   की आवश्यकता है

प्रत्येक सोपान का आनन्द लेते हुए जीवन यात्रा करते चलें

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने क्या बताया जानने के लिए सुनें