असतो मा सद्गमय। असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतं गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
- बृहदारण्यकोपनिषद् 1.3.28
प्रस्तुत है ज्ञान -दीधितिमत् ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आश्विन् मास कृष्ण पक्ष चतुर्थी विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 2 अक्टूबर 2023 का सदाचार संप्रेषण
*795 वां* सार -संक्षेप
1 =दीधितिमत् =सूर्य
06:19, 16.52 MB, 16:50
इसमें कोई संदेह नहीं कि संसार अद्भुत है ही लेकिन इसके साथ ही संसार के सार को खोजने की विधियां भी अत्यन्त अद्भुत हैं
कोई इसे शान्ति कहता है कोई सुख कोई आनन्द /परम आनन्द
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।।5.29।।
जब इनकी विवेचना होती है तो वही सत्य लगती है
कभी सब कुछ ठीक लगता है कभी लगता है कुछ भी ठीक नहीं है
परमात्मा का अंश मनुष्य जीवात्मा के रूप में इस संसार में भ्रमण करता है तो
इस बात का कभी आकलन नहीं किया जा सकता कि किसमें कब कौन सा भाव उत्पन्न हो जाए
यह अवसर कभी भी आ सकता है
हमें सदाचारमय विचारों को ग्रहण करने का कोई भी अवसर अनदेखा नहीं करना चाहिए ये सदाचार वेलाएं एक ऐसा सुअवसर हैं जो हमारे लिए अत्यन्त लाभकारी हैं हमें अपनी समस्याओं के यहां समाधान मिलेंगे ही इसमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिए
बृहद् ज्ञान वाला बृहदारण्यक उपनिषद् अति प्राचीन है और इसमें जीव, ब्रह्माण्ड और ब्रह्म (ईश्वर) के बारे में कई बाते कहीं गईं है।यह एकान्त में अध्ययन करने योग्य है
शंकराचार्य ने इसका भाष्य किया है
इस उपनिषद् की भूमिका भी अद्भुत है
इस उपनिषद् के अनुसार याज्ञवल्क्य संन्यास लेना चाहते हैं उनकी दो पत्नियों कात्यायनी और मैत्रेयी में कात्यायनी संसारी भाव की हैं और मैत्रेयी अध्यात्मोन्मुख हैं
वह धन संपत्ति बांटना चाहते हैं ताकि बाद में विवाद न रहे
मैत्रेयी को वह चीज चाहिए थी जो कभी समाप्त न होती
अर्थात् अमरत्व
याज्ञवल्क्य बोले यह तो मुश्किल है
मैत्रेयी उपदेश प्राप्त करना चाह रही थीं
स होवाच याज्ञवल्क्यो
न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस् तु कामाय जाया प्रिया भवति।
यह अपना क्या है मन बुद्धि तो परिवर्तनशील हैं आत्म अपरिवर्तनशील है
आत्म समझना कठिन है
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।
ग्रामं जनपदस्यार्थे
*आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्* ॥
आत्म वो तत्व है जो प्राणों के बीच स्थित है
संक्षेप में कहा जाए
तो देश समाज के साथ हमें आत्मोन्नति के उपाय भी खोजने चाहिए
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया अरविन्द जी का नाम क्यों लिया ध्यान लगाने की विधि कैसी होनी चाहिए जानने के लिए सुनें