बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥
प्रस्तुत है ज्ञान -कुशूल ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज आश्विन् मास शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रम संवत् 2080 तदनुसार 21 अक्टूबर 2023 का सदाचार संप्रेषण
*814 वां* सार -संक्षेप
1 ज्ञान का भण्डार
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भारतीय आर्ष चिन्तन, जो अत्यन्त गहन प्रभावशाली कल्याणकारी रहा है, का अनुसरण करती इन सदाचार वेलाओं का मूल उद्देश्य है कि उस महत् के अंश हम सत्कर्मों में संलग्न रहने का प्रयास करें ,शरीर मन बुद्धि चैतन्य का सामञ्जस्य बैठाते हुए सक्षम समर्थ शक्तिशाली बनें, हमारा प्रयास रहे कि हम षड्विकारों से मुक्त रहें ,हम यज्ञीय भाव को आत्मसात् करते हुए समाज -हित और राष्ट्र -हित के पवित्र कार्य करते चलें,हम आत्मस्थ होकर इस संसार-रत्नाकर के रहस्य को समझें सुलझाएं ,मुमुक्षु बनें
हम राष्ट्रभक्त यह अनुभव करें
कि भारत पुनः विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर है
आइये प्रवेश करें आज की वेला में
हमें यह अनुभव करना चाहिए कि हम उस परमात्मा के अंश होने के कारण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं
चिदानन्द रूपस्य शिवोऽहं शिवोऽहम्
शक्ति की अनुभूति करें
कोई दूसरा जो कह रहा है वही सही है इसे ही हम सत्य न मान लें यदि मुझे अनुभव हो रहा है कि वह ठीक है तभी उसे ठीक समझें
मुझे बहुत लोगों से प्रेरणा मिलती है लेकिन पराश्रयता कहीं से नहीं मिलती यही अनुभव करें
हमें तो स्वयं अपना कल्याण करना है
हम आत्म को विस्मृत न करें
आत्मबोध आत्मशोध अत्यन्त आवश्यक है
*त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत् ।*
*ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥*
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी।।12.13।।
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः।।12.14।।
जो भूतमात्र के प्रति द्वेषरहित रहने वाला मित्र करुणावान् ममता और अहंकार से रहित, सुख और दु:ख में सम, क्षमावान्, संयतात्मा, दृढ़निश्चयी,योगी, सदा सन्तुष्ट रहने वाला अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण किये हुए है वही मेरा भक्त है मुझे प्रिय है।।
जो होना होता है वह होकर रहता है शुभ अशुभ काल नहीं होता
हमारा कर्मसिद्धान्त प्रत्येक क्षण का है
हमारा कर्मसिद्धान्त पौरुष को जाग्रत करते रहने का एक माध्यम है
वर्तमान का कर्म भविष्य का भाग्य बनता है
करम गति टारै नाहिं टरी ॥
मुनि वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी, सिधि के लगन धरि ।
सीता हरन मरन दसरथ को, बनमें बिपति परी ॥ १॥
कहॅं वह फन्द कहाँ वह पारधि, कहॅं वह मिरग चरी ।
कोटि गाय नित पुन्य करत नृग, गिरगिट-जोन परि ॥ २॥
पाण्डव जिनके आप सारथी, तिन पर बिपति परी ।
कहत कबीर सुनो भै साधो, होने होके रही ॥ ३॥
हम इस ओर भी ध्यान दें कि
क्या अंग्रेजी के लिए हिमायती होना बहुत आवश्यक है
यह भाषा हमारे ऊपर छल से लाद दी गई हमें भ्रामक जाल में फंसा दिया गया
यह भाषा जिसने हमारे रीतिरिवाजों हमारी परंपराओं पर प्रहार किया हो हमारा आत्मबोध भ्रमित किया हो वह वितृष्णा के योग्य है
आचार्य जी ने इस ओर भी संकेत किया स्वयं वयसनों को त्यागकर हम दूसरों को व्यसनों को त्यागने की सलाह दें तभी दूसरों पर इसका प्रभाव पड़ेगा
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने स्वास्थ्य शिविर के बारे में क्या बताया vintage car rally की चर्चा क्यों की
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