20.11.23

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का कार्तिक मास शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 20 नवम्बर 2023 का सदाचार संप्रेषण *८४४ वां* सार -संक्षेप

 प्रस्तुत है निस्तिमिर ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज कार्तिक मास शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 20 नवम्बर 2023 का सदाचार संप्रेषण

  *८४४ वां* सार -संक्षेप

 1 पाप और नैतिक मलिनताओं से मुक्त

सदाचारमय विचारों को ग्रहण करने के लिए आइये प्रवेश कर जाएं आज की वेला में
सदाचारमय विचारों के द्वारा हम अपने विकारों को दूर करने का प्रयास करते हैं इन विचारों को सुनने के पश्चात् हमें सदाचरण भी करना चाहिए जिसका विस्तार अपने से प्रारम्भ कर अपनों तक हो खाद्य अखाद्य का विवेक हो प्रेम आत्मीयता का विस्तार हो ये विचार इसलिए भी आवश्यक हैं ताकि हमें निराशा हताशा कुंठा न घेरे प्रातःकाल परमात्मा का स्मरण कर हमें उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए इस कृतज्ञता से हमें आत्मानुभूति होगी कि परमात्मा मेरे अन्दर ही स्थित है



ब्रह्म मै ढूँढ्यौ पुरानन गानन वेद-रिचा सुनि चौगुने चायन।

देख्यौ सुन्यौ कबहूँ न कितूँ वह कैसे सरूप औ कैसे सुभायन।

टेरत हेतर हारि पर्यौ रसखानि बतायौ न लोग लुगायन।

देखौ दुरौ वह कुंज-कुटीर मै बैठौ पलोटत राधिका पायन॥

जीवन संसरित होता रहता है लेकिन मनुष्य का जीवन कर्मानुबन्धित है
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥

इस संसार में कर्म करते हुए ही मनुष्य को सौ वर्ष जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए

 मनुष्य के लिए इस प्रकार का ही विधान है, इससे भिन्न नहीं, इस तरह कर्मानुबन्धित होकर जीने की इच्छा करने से मनुष्य में कर्म का लेप नहीं होता।

शरीर हमारा माध्यम है जब तक वह चलने लायक है उसे अच्छी तरह चलाना चाहिए

जिस तरह हम अपने वाहन को बहुत अच्छी तरह से रखने का प्रयास करते हैं
लेकिन शरीर से मोह कम हो इसका प्रयास करना चाहिए

द्रष्टा बाधाओं को देख लेते हैं मनुष्य बाधाओं को नहीं देख पाता लेकिन आंखें बन्द कर जो चलते हैं वो मनुष्य न कहलाकर जीव कहे जाते हैं
मनुष्य जीवन का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति है कुछ क्षण हम आत्मस्थ होने के लिए निकालें मैं कौन हूं क्या मैं शरीर हूं उत्तर मिलेगा नहीं तो फिर मैं क्या हूं
मैं हूं
चिदानन्द रूपस्य शिवोऽहं शिवोऽहम्

इस चिदानन्द शक्ति ने शरीर का आवरण धारण किया है


वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-

न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22।।


मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को त्यागकर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, उसी तरह देही पुराने शरीरों को त्याग दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।


निर्भय स्वागत करो मृत्यु का,
 मृत्यु एक है विश्राम-स्थल।
 जीव जहाँ से फिर चलता है,
 धारण कर नव जीवन-संबल l


यह अध्यात्म वैराग्य नहीं कर्म की प्रेरणा है उत्साह है

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया प्रदीप दीक्षित जी भैया विभास जी भैया डा अमित गुप्त जी का नाम क्यों लिया जानने के लिए सुनें