प्रस्तुत है निस्तन्द्र ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज कार्तिक मास शुक्ल पक्ष षष्ठी विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 19 नवम्बर 2023 का सदाचार संप्रेषण
*८४३ वां* सार -संक्षेप1 जागरूक
इन सदाचार संप्रेषणों का उद्देश्य स्पष्ट है कि हम समाज -हित और राष्ट्र -हित के कार्यों में मनोयोग से संलग्न हों अपने वास्तविक इतिहास से परिचित हों और अन्य को भी परिचित कराएं श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरित मानस सहित अपने अमूल्य सद्ग्रन्थों का अध्ययन करें चिन्तन मनन लेखन स्वाध्याय भक्ति सद्संगति प्रार्थना योग ध्यान आदि में रत हों संगठन का विस्तार करें आत्मानुभूति करें कि मैं कौन हूं सफलता असफलता में समस्थिति में रहें संसार के व्यवहार को न भूलते हुए अध्यात्म का आश्रय लें षड्विकारों से दूर रहने का प्रयास करें
घर से बाहर तक हमारा जीवन मंगलमय रहे मरण भी मंगलमय रहे इसका प्रयत्न करें पशु पक्षियों से भी हम आत्मीयता का भाव रखें
किन्हीं भी परिस्थितियों में अपने को पराभूत न मानना संसारी जीवन जीने का मूल मन्त्र है
शिक्षक और शिक्षार्थी का संपर्क हमारे राष्ट्र की प्राचीन ज्ञान की अद्भुत अद्वितीय अखंड परम्परा है जो अनेक वात्याचक्रों कष्टों से भी विचलित नहीं हुई
हमने वीरगाथा काल से भक्ति काल में प्रवेश किया वीरों का पौरुष पराक्रम जब भ्रमित होता है शैथिल्य की ओर उन्मुख होता है तो भक्ति उसमें विश्वास का संचरण करती है वीरता कर्म है भक्ति विश्वास है कर्म के भाव का शिथिल होना इस बात का द्योतक है कि हमारा विश्वास टूट रहा है
हमारा मन भी मंदिर है जिसमें भगवान् विराजमान रहते हैं और जो दिखाई भी देते हैं हम विश्वासी होने पर प्रस्तर की प्रतिमा में भी शक्ति खोज लेते हैं जब हमारे शरीर में भगवान् विद्यमान हैं तो हमें मंदिर की तरह इसकी स्वच्छता का भी ध्यान रखना चाहिए
राष्ट्र और राम में हम कोई अन्तर नहीं मानते राम के नाम के साथ राम का जीवन
हमें सुस्पष्ट है हम भाव के उपासक हैं इसी कारण हम पराजित नहीं होते संघर्ष पीढ़ियों को प्रदान कर जाते हैं
प्रेम आत्मीयता विश्वास के कारण ही अर्जुन केवल कृष्ण जी को मांगते हैं जब कि अज्ञानी दुर्योधन पूरी सेना लेता है
तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण हमारे शास्त्रीय ग्रंथों में यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि हम जीवात्मा परमात्मा के अंश हैं
परमात्मा स्रष्टा भी है और सृष्टि भी सृष्टि की रचना कर स्वयं परमात्मा सृष्टि में विद्यमान रहता है
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया मोहन जी भैया मनीष जी का नाम क्यों लिया?
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