कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।।
प्रस्तुत है प्रियङ्कर ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज कार्तिक मास शुक्ल पक्ष एकादशी ( उत्थान एकादशी ) विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 23 नवम्बर 2023 का सदाचार संप्रेषण
८४७ वां सार -संक्षेप
1 कृपा करने वाला, स्नेह करने वाला
इन सदाचार संप्रेषणों के माध्यम से हमारा आचार्य जी से भावनात्मक संपर्क जुड़ा है जो अद्वितीय है अद्भुत है अवर्णनीय है
गीता में
सेनाएं सजी हैं हमारा नायक अर्जुन अचानक मोहग्रस्त हो गया है
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।1.45।।
घोर आश्चर्य एवं खेद की बात है कि हम लोगों ने भारी पाप करने का निश्चय कर लिया है राज्य / सुख के लोभ से अपने ही लोगों को मारने के लिए हम तैयार हो गये हैं
इस तरह की बातें कहने के बाद शोकाकुल अर्जुन बाण सहित धनुष को त्याग रथ के मध्य भाग में बैठ गया
लेकिन उसने द्रष्टा का साथ लिया था
वह द्रष्टा कहता है
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।2.30।।
यह देही आत्मा सभी शरीरों में सदैव अवध्य है, इसलिए सभी प्राणियों के लिए तुम्हें शोक करना उचित नहीं
इसी तरह कठोपनिषद् में हम देखते हैं
नचिकेता यम के प्रासाद पर पहुंच जाता है...
नचिकेता क्या भूत/आत्मा के रूप में यमलोक पहुंचा, या शरीर के साथ ? क्योंकि यम की पत्नी ने उसको ब्राह्मण कहा , इससे पता चलता है कि वह सशरीर ही वहां गया था
इससे ऐसा लगता है कि कथा सर्वथा काल्पनिक है और उसमें विश्वसनीय कुछ भी नहीं
लेकिन कल्पना भी बिना किसी यथार्थ के हो नहीं सकती
कल्पना का कोई न कोई आधार होगा
उस आधार का भारत वर्ष में बहुत अनुसंधान हुआ है
इसका हमारे भारतवर्ष में प्रचुर साहित्य है जो हमारे लिए गर्व की बात है
न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे ॥
बाल-बुद्धि व्यक्ति को जो प्रमाद में आकंठ डूबा है उसे परलोक यात्रा का बोध नहीं होता
मात्र यह लोक है और परलोक तो होता ही नहीं, ऐसा मानने वाला व्यक्ति मृत्यु के वश में होता रहता है
लोक परलोक कल्पना नहीं है संसार सार और असार दोनों है
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।2.22
बाल-बुद्धि व्यक्ति संसार को सार समझता है
सुख हरषहिं जड़ दु:ख बिलखाहीं। दोउ सम धीर धरहिं मन माहीं॥
धीरज धरहु बिबेकु बिचारी। छाड़िअ सोच सकल हितकारी॥4॥
मूर्ख सुख में हर्षित और दुःख में रोते हैं किन्तु धीर पुरुष अपने मन में दोनों को समान मानते हैं। हे सभी के रक्षक! आप विवेक का विचार कर धीरज धरें और शोक का त्याग करें
हमारे यहां का जीवन जीने का सिद्धान्त अद्भुत है यदि इसकी अनुभूति हमें हो तो कर्म करते हुए हम व्याकुल नहीं होते
आचार्य जी ने परामर्श दिया कि प्रयत्नशील रहने में आनन्द की अनुभूति करें
चिन्तन मनन अध्ययन स्वाध्याय लेखन करते रहें
आचार्य जी ने निदिध्यासन का अर्थ स्पष्ट किया
इसके अतिरिक्त आज विद्यालय का कौन सा प्रसंग उठा वृन्दावन का उल्लेख क्यों हुआ जानने के लिए सुनें