प्रस्तुत है उच्छासन -रिपु ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष नवमी विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 21 दिसंबर 2023 का सदाचार संप्रेषण
*८७५ वां* सार -संक्षेप1 निरंकुश व्यक्ति का शत्रु
इन सदाचार संप्रेषणों का मूल उद्देश्य है कि हम संसार के आवरण को दूर करते हुए सात्विक ऊर्जा प्राप्त करें हम अपना विवेक जाग्रत रखें मालिन्य से दूर रहें, सच्चाई के रास्ते पर चलते हुए पौरुष सामर्थ्य पराक्रम को पूजें ,मनुष्यत्व का अनुभव करते हुए समाज -हित और राष्ट्र -हित के कार्य करें , एकात्म मानववाद की धारणा स्वीकारते हुए परस्पर प्रेम आत्मीयता का भाव रखें, देश के प्रति दुर्भाव रखने वाले आस्तीन के सांपों से सावधान रहें, सकारात्मक सोच रखें,आत्मबोध और आत्मशोध का प्रयास करें, संसार -सागर में डूबते तिरते मनुष्य को भीतर से सशक्त बनाने वाले अध्यात्म के प्रकाश से प्रकाशित होने का प्रयास करें ताकि हम संकटों को बर्दाश्त करने की शक्ति प्राप्त कर सकें
हम सौभाग्यशाली हैं कि हमने एक ऐसे विद्यालय से माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की है जो गहरी वेदना से निकली एक विशिष्ट भावना के कारण खोला गया था
वह गहरी वेदना उपजी थी दीनदयाल जी, जो अद्भुत ढंग से तत्वदर्शन को सुस्पष्ट करते थे और जिनके एकात्म मानव दर्शन’ को पहली बार १९६४ में एक दस्तावेजी स्वरूप में जनसंघ के ग्वालियर अधिवेशन के दौरान सामने रखा गया था, की दुष्टों द्वारा हत्या से
बड़े चाव से सुन रहा था जमाना, तुम ही सो गए दास्तां कहते कहते
उस समय देश की परिस्थितियां गम्भीर थीं
इस समय एक कुशल नेतृत्व के कारण भारत शक्तिशाली बनता जा रहा है हर दिशा में विकास हो रहा है तो निरंकुश
दुष्ट व्यक्ति जो विनाश के लिए ही जन्मे हैं इस विकास को इस शक्ति को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं
इस दुनिया को नाट्यमञ्च के रूप में देखें तो इन बाधाओं से ही नायक सम्मान का हकदार बनता है
हमारा कर्तव्य बनता है कि इन सदाचार वेलाओं से प्रेरणा प्राप्त कर हम अपनी रुचि का सात्विक अध्ययन करें और संसार को उस अध्ययन की कसौटी पर कसते हुए प्रार्थना करें कि
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥
सत्य का मुंह चमकीले सुनहरे ढक्कन से ढका हुआ है
हे सूर्यदेव! सत्य के विधान की प्राप्ति के लिए, साक्षात् दर्शन के लिए आप वह ढक्कन अवश्य हटा दें
लेकिन यदि हम इसी ध्यान धारणा में बैठे रहेंगे तो संसार का संचालन बाधित हो जाएगा इसलिए हमें कर्तव्य अकर्तव्य का बोध भी होना चाहिए भागवत,गीता और मानस से हमें इसी की प्रेरणा मिलती है
हम अध्ययन की ओर उन्मुख हों और उसके व्यावहारिक प्रयोग की ओर उन्मुख हों
जैसे हम व्यापारी हैं तो लाभ तो लें लेकिन उचित और इतनी साख बनाएं कि ग्राहक को लगे कि वह ठगा नहीं जाएगा
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने गणेश शंकर विद्यार्थी जी, मैथिली शरण जी का उल्लेख क्यों किया आदि जानने के लिए सुनें