प्रस्तुत है अमायिन् ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष अष्टमी विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 5 दिसंबर 2023 का सदाचार संप्रेषण
८५९ वां सार -संक्षेप
1 निश्छल
इन सदाचार संप्रेषणों की महत्ता इसलिए बढ़ जाती है कि हम अध्यात्म के द्वार के अन्दर प्रवेश कर अपने आत्मतत्त्व के दर्शन करने का प्रयास करते हैं पूर्ण आत्म ने तो सारी सृष्टि ही रची है हम अंश आत्म इस प्रकार की रचना करने के लिए उद्यत तो होते हैं लेकिन स्थायित्व नहीं प्रदान कर पाते वैसे तो सृष्टि भी स्थायी नहीं है लेकिन यह परमात्मा के हाथ में रहता है कि जब चाहे वह सृष्टि रच दे जब चाहे उसका संहार कर दे
निश्छल बालक भी कुछ बनाता बिगाड़ता रहता है बिगाड़ने पर वह रोता नहीं है जब दूसरा उसका बिगाड़ता है तब वह रोता है यह दूसरा ही संसार है जब तक वह आत्मबोधोत्सव मनाता है तब तक वह बनाता बिगाड़ता रहता है क्योंकि वह संसार से अछूता है ऐसे बालक में हम परमात्मा के दर्शन कर सकते हैं
संघर्ष में भी मुस्कराने की शिक्षा देने वाली गीता में भगवान् कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।
हार जीत , लाभ हानि और सुख दुःख को एक समान भाव रखकर तुम पुनः युद्ध में रत हो जाओ । इस प्रकार युद्ध करने से तुम्हें पाप नहीं लगेगा
युद्ध के लिए युद्ध करो संसार में रहने के लिए संसार में रहो
जो कुछ भी है वह भगवान् का ही है इसलिए सब उसी को समर्पित
आचार्य जी ने बताया कि तब सांख्य योग दर्शन बहुत विस्तार ले लेता है
भारतीय दर्शन के छः प्रकारों में से साङ्ख्य भी एक है जो किसी समय अत्यन्त लोकप्रिय हुआ था। यह अद्वैत वेदान्त से सर्वथा भिन्न मान्यताएँ रखने वाला दर्शन है। इसकी स्थापना करने वाले मूल व्यक्ति कपिल कहे जाते हैं
महाभारत के अनुसार इस लोक में जो भी ज्ञान है वह सांख्य से आया है।
ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किञ्चित् साङ्ख्यागतं तच्च महन्महात्मन् (शांति पर्व )
सारा संसार संख्यामय है जहां संख्याएं संकुचित होते होते एक संख्या में विलीन हो जाती हैं वह संसार का सार अर्थात् परमात्मा है
जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥
आचार्य जी ने यह भी स्पष्ट किया कि भक्ति प्रेम की पराकाष्ठा है
प्रेम के दो पक्ष हैं - संयोग और वियोग
प्रेम में मिलन अत्यन्त रोमांचित करने वाली अविस्मरणीय अनुभूति देता है। लेकिन वियोग में निःस्वार्थ शुद्ध प्रेम की पराकाष्ठा झलक जाती है , जिसकी स्थिति मिलन की अनुभूति से कई गुना सूक्ष्म एवं सात्विक होती है।
‘‘ मिलन अंत है मधुर प्रेम का , और
विरह जीवन है ,
विरह प्रेम की जागृति गति है , और
सुषुप्ति मिलन है। ”
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने पूज्य भाईसाहब के कल सम्पन्न हुए त्रयोदशी संस्कार की चर्चा की