10.1.24

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का पौष कृष्ण पक्ष चतुर्दशी विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 10 जनवरी 2024 का सदाचार संप्रेषण *८९५ वां* सार -संक्षेप

 दिखानी है दिशा संसार को फिर से उठो जागो,

भवानी से विजय संकल्प का वरदान शुभ माँगो,
न भय भ्रम और मोहक भाव से मन बँध सके क्षणभर,
कहो कायर कुटिल दल से हटो इस देश से भागो।

प्रस्तुत है अनेड -रिपु ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज पौष कृष्ण पक्ष चतुर्दशी विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 10 जनवरी 2024 का सदाचार संप्रेषण
  *८९५ वां* सार -संक्षेप

 1 अनेडः =दुष्ट

कायर कुटिल दल की कुटिलता से हमें सावधान कराना,हमें अवतारत्व की अनुभूति कराना और अमरत्व की उपासना में रत कराना , अहमिका वृत्ति से बचकर मनुष्यत्व की अनुभूति कराना, हमारी विलक्षण अन्तर्शक्तियों से हमारा ज्ञान कराना, लोक कल्याणी भारतीय साहित्य के सिद्धान्त वाक्यों से सुपरिचित कराना ,दुरूह तात्विक विषय को सरल करना , हमें आत्महीनता से दूर कराना ,चिन्तन मनन अध्ययन स्वाध्याय लेखन निदिध्यासन समाज -सेवा देश -सेवा में हमें रत कराना, शक्ति भक्ति विश्वास उत्पन्न कराना, दूसरों से अपेक्षाओं की अति से हम बचें क्योंकि अपेक्षाओं की उपेक्षा कष्ट देती है ऐसा परामर्श देना, हमें दम्भ आदि विकारों से दूर करना, भारत के मूल स्वरूप को वापस लाने में गिलहरी की भांति हम अपना सहयोग दें हमसे ऐसी अपेक्षा करना आचार्य जी का उद्देश्य रहता है

सिय राम मय सब जग जानी,
करहु प्रणाम जोरी जुग पानी ॥
इस सूत्र सिद्धान्त को मन में रखते हुए आइये प्रवेश करें आज की वेला में

चौदहवीं शताब्दी के महान् संत माधवेन्द्र पुरी अपनी मनोभावना को इस प्रकार प्रकट कर रहे हैं

सन्ध्यावन्दन भद्रमस्तु भवते भोः स्नान तुभ्यं नमः।

भो देवाः पितरश्चतर्पणविधौ नाहं क्षमः क्षम्यताम् ।।

यत्र क्वापि निषद्य यादव कुलोत्तमस्य कंस दविषः।

स्मारं स्मारमा हरामि तदलं मन्ये किमन्येन मे।।
मैं कंस के शत्रु श्रीकृष्ण का ही स्मरण करता हूँ जो मुझे सांसारिक बंधनों से मुक्त कराने के लिए पर्याप्त कारण हैं
इसी तरह राष्ट्र -सेवा, समाज -सेवा में जो लगे रहते हैं जो मनस्वी तपस्वी हैं उनकी भी यही स्थिति रहती है

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।2.55।।
जिस समय साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग देता है और स्वयं में ही सन्तुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है

जानता स्वर्ण नगरी है यह पर ओढ़े सीतारामी हूं
हो कोई साथ नहीं फिर भी अपने पथ का अनुगामी हूं...

हमारा अपना पथ अपना लक्ष्य है
राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष
समाज के अतिरिक्त मनुष्य का कोई जीवन नहीं है
समाज देवता है समाज हमारा कर्म धर्म है
समाज इस मनुष्यत्व का मर्म है
निःस्वार्थ भाव से दम्भ रहित होकर जब हमने समाज सेवा का संकल्प किया है तो इसके लिए हमारे संगठन को समर्थ सक्षम सुदृढ़ होना होगा
इसके लिए सबसे पहले हम युगभारती के सदस्यों को नित्य मिलने का क्रम बनाना होगा
शौर्य प्रमंडित अध्यात्म की अनिवार्यता पर जोर देते हुए आचार्य जी ने कहा प्रेम आत्मीयता का आधार लेकर मनुष्य को स्व से पर तक की यात्रा सहज भाव से करनी चाहिए
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया मुकेश जी का नाम क्यों लिया किस संत के बारे में आचार्य जी और अधिक जानना चाहते हैं जानने के लिए सुनें