कभी प्रसिद्धि या कि सिद्धि के लिए न मोह हो
किसी स्वदेशभक्त से कभी न रंच द्रोह होकि लोभ क्षोभ क्रोध में कभी समय न व्यर्थ हो
स्वकर्म से कभी नहीं किसी समय अनर्थ हो।
प्रस्तुत है प्रज्ञाल ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज पौष कृष्ण पक्ष अमावस्या विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 11 जनवरी 2024 का सदाचार संप्रेषण
*८९६ वां* सार -संक्षेप
1 बुद्धिमान्
हमारे मनों को उत्साहित करना,हमारे चैतन्य को जाग्रत करना,हमें अवतारत्व और मनुष्यत्व की अनुभूति कराना, हमें अपनी छिपी हुई विलक्षण अन्तर्शक्तियों को जानने की प्रेरणा देना,संपूर्ण धरा के लिए हितकारी भारतीय साहित्य से सुपरिचित कराना ,दुरूह विषय को सरलता से समझाना , हमें आत्महीनता से विमुख कराना ,चिन्तन मनन अध्ययन स्वाध्याय लेखन निदिध्यासन समाज -सेवा देश -सेवा में हमें रत कराना,हम अपने पारिवारिक कर्तव्यों में भी कोताही न बरतें इसका ध्यान देना आचार्य जी का उद्देश्य रहता है
लोभ क्षोभ क्रोध में समय न व्यर्थ करते हुए अपने आनन्द वर्धन के साथ साथ यह प्रण करते हुए कि इस वेला को हम केवल सांकेतिक रूप में न लेकर पूर्ण मनोयोग से कर्मानुरागी बनेंगे आइये प्रवेश करें आज की वेला में
जब किसी की समस्याओं को हम अपनी समस्याएं समझ लेते हैं तभी उनका हल निकाल पाते हैं अन्यथा हम टाल देते हैं और सोचते हैं हमें उनकी समस्याओं से क्या लेना देना
सेवाधर्म ढोंग नहीं होना चाहिए समाजोन्मुखी चिन्तन को और अधिक परिपुष्ट करें
आचार्य जी परामर्श दे रहे हैं कि हम अपने जीवन में विधि व्यवस्थाओं को रखते हुए आत्मबोध के साथ आत्माभिव्यक्ति करना भी सीखें
आचार्य जी की निम्नांकित कविता यह प्रेरणा दे भी रही है
कवि अपनी छाया से प्रश्न कर रहा है
साथी साथ कहां तक दोगे '....
कितनी दूर अभी जाना है आखिर कहाँ ठिकाना है
साथी, साथ कहाँ तक दोगे तुमको किस दर जाना है
चलने का सो गया हौसला थके पाँव पाथेय चुका
अँघियारा छा रहा किनारे लगता कोई छिपा-लुका
दूर-दूर की आवाजें बेवजह भयावन लगती हैं
बंद हुयी आँखें सहमी सी भीतर-भीतर जगती हैं
कहाँ पड़ाव, कहाँ पर इतनी लम्बी रात बिताना है । १ ।
साथी, साथ कहाँ तक दोगे....
साथी। शायद तुम भी मेरे जैसे निपट अकेले हो
खाली हाथ भले, पर लगता कल तक '“पाँसे” खेले हो
उन्मन हो मेरे जैसे ही वैसे ही कुछ बोझिल हो
भूला राग याद करने की कोशिश हो या तन्द्रिल हो
कहो न मैंने तुमको कितना सही-सही पहचाना है । ।२। |
साथी, साथ कहाँ तक दोगे....
साथी | मौन अभी तक क्यों हो साथ-साथ क्यों चलते हो
पीड़ा के पाषाण प्यार की छाया से क्यों खलते हो
अगर मौन की मर्यादा हो तो क्यों मेरे साथ चले
अपनी राह चले जाते रहते हम भी निस्संग भले
आगे बढ़ो हटो या पथ से, हमें अकेले जाना है । ।३।।
साथी, साथ कहाँ तक दोगे.....
प्रतिच्छाय हूं इसलिए ही साथ तुम्हारे आया हूं
लेखा जीवन भर का पर दुनिया कहती है माया हूँ
घट रीता या भरा मुझे तो अनुवर्तन ही करना है
मुझको गति के साथ सदा ही चढ़ना और उतरना है
जिसकी आँख खुली जितनी उसने उतना पहचाना है।।४।।
साथी, साथ कहाँ तक दोगे.....
छाया अयवा माया ही दुनिया का पूरा दर्शन है
इससे दूर कहीं दुनिया में रहना, निरा प्रदर्शन है
चलना है अविराम ठिकाने का सपने भी नाम न ले
मन को मार बुद्धि के बल पर दुनिया से संग्राम न ले
यह दुनिया मिलने जुलने भर का बस एक ठिकाना है । ५। |
साथी, साथ कहाँ तक दोगे.....
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया मोहन जी का नाम क्यों लिया महादेवी वर्मा की यामा पुस्तक की क्या विशेषता थी शिशु मंदिर वाले आचार्य जी का गाय से संबन्धित क्या प्रसंग था जानने के लिए सुनें