13.1.24

पौष शुक्ल पक्ष द्वितीया विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 13 जनवरी 2024 ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज का संदेश ( *८९८ वां सार -संक्षेप* )

 आज पौष शुक्ल पक्ष द्वितीया विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 13 जनवरी 2024 को पूर्व की भांति मनीषित सदाचार संप्रेषण की प्रतीक्षा समाप्त





प्रस्तुत है कर्तव्य -पथ पर निरन्तर चल रहे प्रतारक -रिपु ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज का संदेश
 ¹ प्रतारकः =छद्मवेषी
( *८९८ वां सार -संक्षेप* )



त्याग बलिदान सेवा समर्पण पुरुषार्थ पराक्रम के पर्याय भारतवर्ष को सशक्त सक्षम समर्थ और विश्व -गुरु बनाने में हमारा निःस्वार्थ योगदान कराना,सनातन धर्म की ध्वजा ऊंची करने में हमसे सहयोग की अपेक्षा करना,हमारे चैतन्य और आत्मबोध को जाग्रत कराना, हमारी छिपी हुई असंख्य विलक्षण अन्तर्शक्तियों को बाहर निकालना,भारतीय साहित्य से सुपरिचित कराना, चिन्तन मनन अध्ययन स्वाध्याय लेखन निदिध्यासन का परामर्श देना ,सात्विक चित्त के साथ समाज -सेवा में हमें लगाना, देशानुराग के हर उत्सव के लिए हमें उत्साहित करना आचार्य जी का उद्देश्य रहता है और यदि हम इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए तत्पर नहीं होते हैं तो व्यथित होकर आचार्य जी कहते हैं


अब क्या लिख दूं संसार अजूबा लगता है
अपनी सूरत से ही अपना मन भगता है

उन्मत्त भावनाएं सांसें भर ले पाती हैं
हर ओर बुद्धि बस केवल आती जाती है
विश्वास न जाने क्यों हतप्रभ हैरान बहुत
जीवन बिखरा बिखरा है मन पत्थर का बुत
सूरज तन्द्रिल हो गया एक तारा भर केवल जगता है
अब क्या लिख...

संन्यस्त हो गए कर्म सभी मजबूरी में
मिलता है तनिक सुकून शहर से दूरी में
अनजानी आकुलता प्रायः जग जाती है
पर सुबह आंख उसकी भी कुछ लग जाती है
अब हंसते नहीं अंगार कहीं कुछ थोड़ा बहुत सुलगता है
अब क्या लिख.....

संसार सत्य था अब भी है विश्वास यही
सपने हैं लेकिन उनसे कोई आस नहीं
चुभती हर कदम कदम पर नई व्यथाएं हैं
आकर्षणहीन पुरानी सुनी कथाएं हैं
मन मन भर के हैं पांव गांव आगे भगता सा लगता है
अब क्या लिख....

जो कुछ भी अब हो रहा जगत का धंधा है
संसार बहुत पहले से बहरा अंधा है
जिसने भी आंखें खोल तनिक भी देखा है
दुनिया में केवल बची कंचनी रेखा है
प्यासा सारंग संसार दियासों में ही भूला भगता है
अब क्या लिख...

सारे प्रयास असमर्थ व्यर्थ बेगाने हैं
जिसको देखो सब अपनी अपनी तानें हैं
यह नियत नटी का खेल या कि अनहोनी है
अपनी अपनी लाशें अपने सिर ढोनी हैं
फिर नाहक मन दिन रात आंसुओं में क्यों सोता जगता है
अब क्या लिख..

लेकिन आचार्य जी को हम निराश न करें
इसलिए हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम आत्मचिन्तन में जाएं
अपने अमूल्य जीवन का सदुपयोग करें
शरीर क्षरणशील है लेकिन उसके भीतर जो आया है उसके चिन्तन की आवश्यकता है रामत्व की अनुभूति करने पर श्रद्धा विश्वास आता है अन्यथा मूर्ति पत्थर लगती है
हम आत्मबोधोत्सव तो मनाएं लेकिन कुछ देखे नहीं यह गलत है अध्यात्म शौर्य से प्रमंडित हो ही
अपनी शक्ति बुद्धि पराक्रम का हम प्रसार भी करें


सौभाग्य कि मैंने मानव का जीवन पाया,
सौभाग्य सौम्य परिवार मिला सात्विक माया,
सौभाग्य कि गंगा-यमुना-सिंचित भूमि मिली,
प्रभु राम-श्याम की मंगल क्रीडाभूमि मिली ,
वीरों बलिदानी पुरखों का इतिहास मिला,
षडॠतु मंडित उत्फुल्ल प्रकृति का हास मिला,
सर्वांग पूर्ण तन और गहन मन भी पाया,
जीवन निर्वाह योग्य प्रभु ने सौंपी माया,
आदर्श चरित वालों का शुभ सत्संग मिला,
सम्मान प्राप्ति का अनुपम अमल प्रसंग मिला।
फिर भी कैसी नादानी वाला असंतोष,
आनन्द बोध को छोड़ दे रहा व्यर्थ दोष,
मंगल प्रभात में आँख खोलकर दर्शन कर,
परमेश्वर परमानन्द परम पुरुषार्थी भाव विमर्शन कर।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया पवन जी भैया राघवेन्द्र जी का नाम क्यों लिया स्वामी विवेकानन्द का क्षीर भवानी मंदिर का क्या प्रसंग है उद्धव शतक के खोने पर कवि रत्नाकर का ढाढ़स कैसे बंधाया गया जानने के लिए सुनें