यशस् की प्राप्ति करना है अगर तो शुद्ध हो पहले,
मनस् के लोभ लाभी भाव भी अवरुद्ध हों पहले,कुपथ चारी जनों से पूर्णरूप विरुद्ध हो पहले,
किसी भी देशद्रोही से विजय का युद्ध हो पहले।
प्रस्तुत है स्थिरमति ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज पौष कृष्ण पक्ष अष्टमी / नवमी विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 4 जनवरी 2024 का सदाचार संप्रेषण
*८८९ वां* सार -संक्षेप
1 विचार या संकल्प का पक्का
आचार्य जी का नित्य प्रयास रहता है कि हमारे अन्दर भाव भक्ति भाषा उत्पन्न हों हम जल्दी जागें जल्दी सोएं खानपान सही रखें हम अपनी समीक्षा करें कि इन वेलाओं का श्रवण कर हमने अन्दर का कौन सा तत्व जाग्रत किया
हम अपने लक्ष्य की ओर भी ध्यान रखें
विश्व अद्भुत है भगवान् ने इस जड़ चेतन विश्व को गुणमय दोषमय रचा है
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईं॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई। जदपि मृषा छूटत कठिनई॥2॥
हे गोसाईं ! वह माया के वशीभूत हो तोते और बन्दर की भाँति स्वयं ही बँध गया। इस तरह जड़ और चेतन में मिथ्या गाँठ पड़ गई। यद्यपि वह मिथ्या ही है फिर भी उसका छूटना कठिन है
चेतन आत्मा का पर्याय है चेतना रखने वाला चैतन्य कहा जाता है अर्थात् चित्
इसी चित् के साथ सत् और आनन्द से मिलकर सच्चिदानन्द बना है सत् का अर्थ है जो यथार्थ है चित् का अर्थ है जो चैतन्य है अर्थात् जाग्रत है और आनन्द का अर्थ है जो सतत आनन्दित है
वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत कहता है परमात्मा में ये तीनों तत्व हैं जीवात्मा में सत् और चित् दोनों का आविर्भाव है किन्तु आनन्द का तिरोभाव है
जड़ में केवल सत् है
यह नाना प्रकार का जगत परमात्मा के सामर्थ्य से उत्पन्न हुआ है
आचार्य जी ने यह भी बताया कि जड़ में सुप्त चैतन्य है
आचार्य जी ने हमारे सनातन धर्म में चेतन से संबन्ध रखने वाले जात कर्म संस्कार की चर्चा की जिसका एक भाग है
मेधाजनन या प्रज्ञाजनन और दूसरा आयुष्य
जिसमें पिता दीर्घायु की कामना करते हुए कहता है
अङ्गादङ्गात्संभवसि हृदयादधिजायसे।
आत्मा त्वं पुत्र माविध स जीव शरदः शतमसाविति नामास्य गृह्णाति।
अश्मा भव परशुर्भव हिरण्यमस्तृतं भव तेजो वै पुत्रनामासि स जीव शरदः शतमसाविति
...
हे पुत्र! तुम नरक से पार करने वाले हो। तुम मेरे अंग-प्रत्यङ्ग से उत्पन्न हुए हो। मेरे हृदय से तुम्हारा प्राकट्य हुआ है। तुम स्वयं मेरे ही आत्म स्वरूप हो। तुमने ही हमारे वंश की रक्षा की है। हे पुत्र! तुम शतायु हो’। तुम्हारा शरीर पत्थर की भांति सुगठित, बलवान्, स्वस्थ एवं नीरोग बने। तुम कुठार के सदृश शत्रुओं का दमन करने वाले तथा सुवर्ण राशि की तरह सभी के प्रिय बनो......
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया मुकेश जी भैया त्रिलोचन जी का नाम क्यों लिया जानने के लिए सुनें