श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई। छूट न अधिक अधिक अरुझाई।।
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी। ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी।प्रस्तुत है परितोषण ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज पौष कृष्ण पक्ष नवमी/ दशमी विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 5 जनवरी 2024 का सदाचार संप्रेषण
*८९० वां* सार -संक्षेप
1 संतुष्ट करने वाला
इन सदाचार संप्रेषणों के माध्यम से आचार्य जी का प्रयास रहता है हमारी सुप्त भावनाएं जाग्रत हों ये संप्रेषण भावनाओं को शक्ति प्रदान करते हैं जिससे भावनाएं फलवती होती हैं आचार्य जी यह भी चाहते हैं कि हम प्रश्न भी करें क्योंकि हमारे यहां की गुरु शिष्य परम्परा प्रश्नोत्तरमयी परम्परा है
जैसे निम्नांकित प्रश्न और उत्तर है
अपार संसार समुद्र मध्ये
निमज्जतो मे शरणं किमस्ति ।
गुरो कृपालो कृपया वदैत-
द्विश्वेश पादाम्बुज दीर्घ नौका ॥ १॥
प्रश्न :- हे दयामय गुरुदेव ! कृपा करके यह बता दीजिये कि अपार संसाररूपी समुद्र में मुझ डूबते हुए व्यक्ति का आश्रय क्या है ?
उत्तर :- सृष्टि के रचनाकार परमात्मा का चरणकमलरूपी जहाज
यह परमात्मा व्यक्त और अव्यक्त दोनों है
सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥
सगुण और निर्गुण में कोई अन्तर नहीं है मुनि, पुराण, पण्डित एवं वेद आदि सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, निराकार, अव्यक्त और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेम के कारण सगुण हो जाता है
जहां प्रश्न नहीं हैं वहां जिज्ञासा नहीं है जहां जिज्ञासा नहीं वहां व्यक्ति केवल खाता पीता सोता रहता है
वह मनुष्य के रूप में पशु के समान है
मनुष्यत्व की अनुभूति करने पर मनुष्य विश्लेषण करने में सक्षम होता है
कल आचार्य जी ने जातकर्म संस्कार की चर्चा की थी जिसमें पिता अपने पुत्र की दीर्घायु की कामना करता है और चाहता है कि पुत्र स्वर्ण की तरह पवित्रतम रहे कठोर रहे शक्तिसम्पन्न रहे शक्ति ऐसी जो शत्रुओं को दंड दे सके
इस तरह के संस्कारों का हमारे परिवार विद्यालय समाज में अभाव हो गया है और विकारों की बहुतायत हो गई है हमारा कर्तव्य है कि हम इन संस्कारों को अपनाएं और इनका प्रसार करें
हमारे श्रुति साहित्य में प्रथम स्थान पर विराजमान् वेद, वेदाङ्ग,पुराण, उपनिषद् आदि सनातनी पवित्र ग्रंथों और चिन्तनशील ऋषियों की अन्य सूत्रशैली में रचित आध्यात्मिक रचनाओं के साथ बड़ा अन्याय हुआ है क्योंकि हम शक्ति की उपासना को छोड़कर शास्त्र की उपासना करते रहे
एक कुचक्र के तहत अर्थ के अनर्थ कर दिये गए और हम असमंजस में हो गए
अब समय आ गया है कि हम इन अमूल्य ग्रंथों का महत्त्व समझें और इनसे लाभ प्राप्त करें आनन्द की अनुभूति करें
आनन्द में इन्द्रियातीत अनुभूति होती है यह आनन्द आंतरिक आनन्द होता है और आत्मा का संस्पर्श करता है आत्मतत्व के ऊपर प्राणिक ऊर्जा आवृत्त रहती है प्राण के साथ इन्द्रियां संयुत रहती हैं
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया आशीष जी बैच २००६ की चर्चा क्यों की राममंदिर के उद्घाटन समारोह में बुलाने पर भी कौन नहीं जाएगा आदि जानने के लिए सुनें