6.1.24

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का पौष कृष्ण पक्ष दशमी /एकादशी विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 6 जनवरी 2024 का सदाचार संप्रेषण *८९१ वां* सार -संक्षेप

 


उठो उत्साह से उत्सव मनाएँ
चलो घर-गाँव को फिर से सजाएँ
सुसज्जित हो भविष्यत् को निहारें
जवानी को विजयव्रत-हित पुकारें।


प्रस्तुत है सानन्द ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज पौष कृष्ण पक्ष दशमी /एकादशी विक्रम संवत् २०८० तदनुसार 6 जनवरी 2024 का सदाचार संप्रेषण
  *८९१ वां* सार -संक्षेप

 1 प्रसन्न

परामर्श : मन,बुद्धि, चित्त, अहंकार, चित्तभूमियों, इन्द्रियों, इन्द्रियों के देवताओं आदि से संबन्धित विषयों के बारे में आचार्य जी से प्रश्न करें


भाव का अभियान न रोकने का संकल्प लेकर दुर्गम डगर से बिना विचलित हुए उदयाचल के उपासक कर्मानुरागी हम राष्ट्र -भक्तों को आचार्य जी नित्य सदाचारमय विचारों से प्रेरित करते हैं ताकि हम अपने अन्दर छिपी असीमित शक्तियों की पहचान कर लें विषम परिस्थितियों में रहते हुए भी संकल्प को परिपुष्ट करने के लिए आत्मबोधोत्सव मनाएं रात प्रात के संघर्ष को देवासुर संग्राम को सत्य मानते हुए अपना प्रकाश फैलाते चलें,अपना अपने परिवार अपने घर का ध्यान रखते हुए राष्ट्र-हित और समाज -हित के कार्य करते रहें अस्ताचल देशों की जीवनशैली के दुर्गुणों की अनदेखी कर अपनी भारतीय जीवनशैली के सद्गुणों को अपनाएं और उन सद्गुणों का प्रचार नई पीढ़ी में कर उसे भ्रमित होने से बचाएं लेखन -योग का महत्त्व समझें चिन्तन मनन अध्ययन स्वाध्याय निदिध्यासन में रत हों,खानपान सही रखें, अपनी राह बनाएं, पराश्रयता अर्थात् dependency से दूर रहें, कर्म के लिए कर्म करें

मैं मनुष्य हूं परमात्मा का प्रतिनिधि हूं पूर्व जन्मों के सत्कर्मों के फलस्वरूप हमें मनुष्य का जीवन मिला है शरीर रूपी इस मंदिर में परमात्मा स्वयं विराजमान है
चिदानन्द रूपस्य शिवोऽहं शिवोऽहम् यह भाव जब हम मन में रखेंगे तो बड़े से बड़े काम कर लेंगे
अंधेरा घना है दीपक के रूप में शपथ लें और जलते रहें अपने भीतर के तत्वों की पहचान करते हुए अपनी रुचियों के साथ सामञ्जस्य बैठाएं


मैं अमा का दीप हूँ जलता रहूँगा
चाँदनी मुझको न छेड़े आज, कह दो |
जानता हूं अब अन्धेरे बढ़ रहे हैं
क्षितिज पर बादल घनेरे चढ़ रहे हैं
आँधियाँ कालिख धरा की ढो रही हैं
 व्याधियाँ हर खेत में दुःख बो रही हैं
 फूँक दो अरमान की अरथी हमारी
मैं व्यथा का गीत हूँ चलता रहूँगा।
मैं अमा का दीप..... ।।१।।


मानता हूँ डगर यह दुर्गम बहुत है
प्राण का पाथेय चुकता जा रहा है
प्यास अधरों की जलाशय खोजती है
भाव का अभियान रुकता जा रहा है
काल से कह दो कि अपनी आस छोड़े
 हिमशिखर का मीत हूँ गलता रहूँगा
मैं अमा का दीप......।।२।।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी को हिन्दू धर्म कोश की दूसरी प्रति की आवश्यकता क्यों हुई विवेकानन्द जी क्या कहते थे भैया डा अमित
जी का नाम क्यों आया जानने के लिए सुनें