12.2.24

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का माघ शुक्ल पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार 12 फरवरी 2024 का सदाचार संप्रेषण *९२८ वां* सार -संक्षेप

 भाव का विस्तार सीमातीत जब हो जाएगा,

और अपना स्वत्व सबके साथ जब मिल जाएगा,
खिल उठेगी प्रकृति पूरे विश्व की आनन्द से,
और बंधनमुक्त बिचरेंगे सभी स्वच्छन्द से ।
गीत गाएगा गगन धरती भरेगी तालस्वर,
धुंध सब छट जाएगा होंगी दिशाएँ भास्वर,
अतः हे परमात्म प्रतिनिधि भाव को विस्तार दो,
भाव की पूजा करो शुभ भाव को विस्तार दो।


प्रस्तुत है महौजस् ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज माघ शुक्ल पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार 12 फरवरी 2024 का सदाचार संप्रेषण
  *९२८ वां* सार -संक्षेप
1अत्यधिक शक्तिशाली


अधिकतर विकारों से भरे पाश्चात्य चिन्तन,जिसमें बहुत सारा धन बहुत सारे साधन एकत्र कर संसार में पहचान बनाना है , से इतर सात्विक विचारों से परिपूर्ण महौजस् भारतीय चिन्तन त्याग तप सेवा समर्पण तपस्या भक्ति अध्यात्म को महत्त्व देता है सारी दिशाओं में प्रकाश फैलाता है
आचार्य जी हमारी आत्मशक्ति को जाग्रत करने हम अणु से विभु हो जाएं मूल पौरुष में विलीन हो जाएं इसके लिए हमारे भावों का सीमातीत विस्तार करने हमें विकारों से दूर करने और विचारों को परिष्कृत करने हम परमात्मा के प्रतिनिधि समाजोन्मुखी जीवन में यशस्विता प्राप्त करें सिंह की तरह हम दहाड़ें यह प्रयास करने के लिए हमें मुमुक्षु बनाने के लिए लगाव दुराव का भाव समाप्त कराने के लिए अपना बहुमूल्य समय नित्य देते हैं हमें इसका महत्त्व समझना चाहिए और लाभ प्राप्त करना चाहिए
सम्मान प्रशंसा यशस्विता प्राप्त करना ही ईश्वरत्व है सदाचारमय विचारों को ग्रहण कर हम अपने को स्वच्छ बनाए रखें भावों से भरी भाषा बोलें यही ईश्वरत्व है


जितना अधिक हमारा भाव जहां से संयुत हो जाएगा हम उतने ही भावापन्न हो जाएंगे
राम कथा में अयोध्या कांड में

व्यथा की पराकाष्ठा पर पहुंचा दशरथ-सुमन्त्र संवाद का प्रसंग है

राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु बैदेही॥
आने फेरि कि बनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए॥2॥

 हे मित्र श्री राम की कुशलता के बारे में बताओ राम, लक्ष्मण और जानकी कहाँ हैं ? उन्हें लौटा लाए हो या वे वन को चले गए हैं ? यह सुनते ही मंत्री की आंखें नम हो गईं ॥2॥

राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरषु हराँसू॥
सो सुत बिछुरत गए न प्राना। को पापी बड़ मोहि समाना॥4॥
सदाचार को व्यवहार में लाने के लिए आचार्य जी गीता के सत्रहवें अध्याय को देखने के लिए कह रहे हैं

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।।17.14।।

देवताओं , ब्राह्मणों , गुरुजनों और जीवनमुक्त महापुरुषों को पूजना , शुद्धि रखना, सरल होना , ब्रह्मचर्य का पालन करना और हिंसा न करना शरीरसम्बन्धी तप है

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।

स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।।17.15।।

उद्वेग न करने वाला, सत्य, प्रिय, हित करने वाला भाषण स्वाध्याय और अभ्यास करना -- वाणी सम्बन्धी तप है।

इसी तरह मन का तप है

मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।17.16।।

आटे से संबन्धित दीनदयाल जी का कौन सा प्रसंग आचार्य जी ने बताया भैया पवन जी के मित्र की चर्चा क्यों हुई
राणा! तू इसकी रक्षा कर, यह सिंहासन अभिमानी है इसका उल्लेख कैसे हुआ जानने के लिए सुनें