परम प्रेम पूरन दोउ भाई।
मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥प्रस्तुत है सरण्ड -रिपु ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज माघ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार 24 फरवरी 2024 का सदाचार संप्रेषण
*९४० वां* सार -संक्षेप
1 दुश्चरित्र व्यक्ति का शत्रु
दुश्चरित्र व्यक्ति राष्ट्र -धर्म में बाधक होते हैं चरित्रवान् व्यक्ति ही किसी राष्ट्र की वास्तविक सम्पदा है हमने अपना लक्ष्य बनाया है कि हम शिक्षा,स्वास्थ्य, स्वावलम्बन और सुरक्षा नामक चतुष्टय का आधार लेकर संसार में अपनी शक्ति सामर्थ्य बुद्धि विचार चौतन्य द्वारा कर्मशील होंगे धर्माधारित कर्म का चिन्तन करेंगे
शिक्षा ऐसी जो पहले अपने को प्रदीप्त जाग्रत उत्साहित करे हमारे अन्दर सुस्पष्टता लाए भय भ्रम दूर करे यही शिक्षा है शिक्षा और संस्कार एक ही पक्ष के दो हिस्से हैं
ॐ शीक्षां व्याख्यास्यामः। वर्णः स्वरः। मात्रा बलम्। साम सन्तानः। इत्युक्तः शीक्षाध्यायः॥
हम शिक्षा अर्थात् मौलिक तत्त्वों की व्याख्या करेंगे। वर्ण, स्वर, मात्रा, बल,साम तथा सातत्य द्वारा हमने शिक्षा का अध्याय कहा है
हमारी शिक्षा अद्भुत है
इन सदाचार संप्रेषणों के द्वारा आचार्य जी प्रयास करते हैं कि हमारा मन मस्तिष्क कर्मशक्ति चिन्तन विचार पुनर्प्रकाशित हो जाए
एक अत्यन्त प्रेरक कविता
जाग मेरे दीप झिलमिल
अंधकार घना कुहासा घोर मन विभ्रमित चिन्तित
शान्त मेधा चकित व्याकुल चित्त विचलित
सांझ घिरती आ रही पर सभी कुछ फैला पड़ा है
प्राण प्यासे झांकते उठ उठ मगर खाली घड़ा है
साथ का पाथेय चुकता जा रहा प्रतिपल तिल तिल
जाग मेरे दीप झिलमिल
हौंसले से ही सभी अरमान बैठे अनमने हैं
रंगरूपों की नुमाइश के फकत तंबू तने हैं
बाहरी दुनिया कि ऐसा लगा भीतर सजी है
दूर सूने में कहीं पर प्यार की वंशी बजी है
सभी रिश्तों में जड़ा है एक सूना काठ का दिल
जाग मेरे दीप झिलमिल
देश दुनिया विश्व घर परिवार बोझिल हो चले हैं
एक थोड़ी सी जगह हिलती हुई पांव तले है
साधना के नाम पर कुछ शब्द सुधियों में पड़े हैं
किन्तु बोझिल वैखरी के द्वार पर ताले जड़े हैं
जा रहे अपने पराए आंसुओं के साथ मिल मिल
...
दीप तुम ऐसा जलो किञ्चित अंधेरा रह न जाए
सीप का वह बन्द मोती खिले खुलकर जगमगाए
इस जगत् के सत्य का संधान पूरा हो, न भटकूं
मुक्तिपथ पूरा करूं अश्रांत किञ्चित भी न अटकूं
प्राण मन्दिर के जलो रे दीप मेरे सतत झिलमिल
जाग मेरे दीप झिल मिल
द्वारा आचार्य जी हमें प्रेरित कर रहे हैं हम आत्मशोध में रत हों जिससे हम सीप के बन्द मोती को आत्मज्ञान हो बिना फल की इच्छा वाले कर्म द्वारा चैतन्य द्वारा हम संसार के अंधकार को दूर करें
संसार के सत्य के संधान को बिना भटके पूर्ण करें
अर्थात् संसार बन्धन से मुक्ति पाएं
किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।4.16।।
आचार्य जी ने विद्यालय में हनुमान जी की प्राणप्रतिष्ठा की चर्चा की
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने अशुद्ध शब्दों पर क्या चर्चा की जानने के लिए सुनें