24.3.24

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का फाल्गुन शुक्ल पक्ष चतुर्दशी/पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार 24 मार्च 2024 का सदाचार संप्रेषण

 

प्रस्तुत है रक्तप -रिपु ¹  आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज फाल्गुन शुक्ल पक्ष चतुर्दशी/पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार  24 मार्च 2024 का  सदाचार संप्रेषण 

  ९६९ वां सार -संक्षेप

1 पिशाच -शत्रु

ये सदाचारसंप्रेषण हमारी कमजोरियों को दूर करने के उपाय हैं आचार्य जी का प्रयास रहता है कि हम शैथिल्य आदि दूर कर राष्ट्र के कल्याण हेतु तेजस्वी जयस्वी मनस्वी यशस्वी बनें  परमात्मा की कृपा हो और अपने विकार दूर हो जाएं तो क्या कहना 

प्रतिदिन हमको सत् का अभ्यास करना है और असत् का त्याग करना है

आत्मविस्तार का प्रयास करना है हमको बल देने वाले रामत्व को जानने की आवश्यकता है यह अनुभूति करें कि हम भी अवतार हैं गुणों का प्राचुर्य लाने का प्रयास करें अपने अंदर आत्मबल शक्ति पराक्रम आस्था भक्ति संजोएं 

तुलसीदास जी की कृति विनय पत्रिका, जिसके पद वेदमन्त्रों की तरह के हैं और गेय हैं, से ली गई ये पंक्तियां देखिए

जिसमें बताया गया है कि ईश्वर की कृपा के बिना हमारे मन के माया मोह अहंकार आदि  भ्रम संदेह संशय दूर नहीं होते हैं अपना स्वभाव विषय वासनाओं से युक्त है

भक्ति ज्ञान वैराग्य की सहायता से संसारसागर को पार किया जा सकता है सभी लोग सुख प्रशंसा प्रतिष्ठा चाहते हैं  प्रभु चाहेंगे तो ही इन्द्रियजन्य सुख दुःख लाभ हानि मिटेंगे 

भाषा -ब्रज

अलंकार -अनुप्रास

रस -शांत (स्थायी भाव निर्वेद )

इसमें विष्णु सहस्रनाम के ४७वें नाम हृषीकेश, जिसका अर्थ है इन्द्रियों के स्वामी, का उल्लेख हुआ है 


हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै।

देखत, सुनत, बिचारत यह मन, निज सुभाउ नहिं त्यागै॥१॥

भक्ति, ज्ञान वैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई।

कोउ भल कहौ देउ कछु कोउ असि बासना ह्रदयते न जाई॥२॥

जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै।

निज करनी बिपरीत देखि मोहि, समुझि महाभय लागै॥३॥

जद्यपि भग्न मनोरथ बिधिबस सुख इच्छित दुख पावै।

चित्रकार कर हीन जथा स्वारथ बिनु चित्र बनावै॥४॥

ह्रषीकेस सुनि नाम जाउँ बलि अति भरोस जिय मोरे।

तुलसीदास इन्द्रिय सम्भव दुख, हरे बनहि प्रभु तोरे॥५॥


भगवान् कृष्ण गीता में समझा रहे हैं


इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।


मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।3.42।।


शरीर से परे इन्द्रियाँ  हैं;  इन्द्रियों से परे मन, मन से परे बुद्धि  और  बुद्धि से भी परे है आत्मा


एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।


जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।3.43।।


इस प्रकार जब यह जान लिया है कि बुद्धि से परे  आत्मा है  तो बुद्धि के द्वारा मन को वश में  करके तुम कामरूप शत्रु को मारो



इसके अतिरिक्त कौन फोन करने के बाद पांच मिनट के अंदर आचार्य जी के पास पहुंच गया कौन बबूल का पेड़ उखाड़ नहीं पाया आदि जानने के लिए सुनें