*९७१ वां* सार -संक्षेप
1 निडर
आचार्य जी जैसे निडर संत हमें जाग्रत करने के लिए उत्थित करने के लिए पुरुषार्थी बनाने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहते हैं
यदि हम संस्कारमयी शिक्षा वाले इन सदाचार संप्रेषणों के विचारों को व्यवहार में उतार लें तो हमें ये अत्यन्त लाभ पहुंचाएंगे
हमारे लिए अध्यात्म तो आवश्यक है ही शौर्यमय कर्ममय सिद्धान्तमय जीवन भी आवश्यक है
शौर्यप्रमंडित अध्यात्म है तो हमें संसार को देखना ही है ऐसा अध्यात्म समस्याओं का समाधान सुझा देता है हम रामत्व की अनुभूति करें हम केवल तत्त्व नहीं शक्ति, विश्वास भी हैं जो परमात्मा है वही हम हैं
सोऽहं सोऽहम्
यह अनुभूति अद्भुत है
इसका वर्णन नहीं किया जा सकता यह अध्यात्म के आनन्द की अवस्था है हमें इसका प्रयास करना चाहिए
अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
भगवान् का भजन अद्भुत है लेकिन चंचल मन के कारण हम विषय वासनाओं में पड़े रहते हैं जो क्षणिक हैं
न तो और सबै विष-बीज बये हर-हाटक काम-दुहा नहि कै
इसलिए
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।।6.5।।
अपना अधःपतन नहीं करना चाहिए अर्थात् अपने आत्मा को नीचे नहीं गिरने देना चाहिए क्योंकि यह आप ही अपना बन्धु है। दूसरा कोई बन्धु नहीं है जो संसार से मुक्त करने वाला हो।
हम ऐसी भूमि में जन्मे हैं सौभाग्यशाली हैं कि हमें अनगिनत संत मिले हैं हमें इनका सम्मान करना चाहिए
आचार्य जी ने दो पुस्तकों *उत्तर भारत की संत परम्परा* और *मराठी संतों की देन* की चर्चा की
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने नागपुर का कौन सा प्रसंग बताया
शौर्यप्रमंडित अध्यात्म के विग्रह कौन कौन से हैं जानने के लिए सुनें