30.3.24

 हम उदय के गीत, गति के स्वर, प्रलय के शोर भी हैं

 हम गगन के मीत हैं, पाताल के प्रहरी, कभी घनघोर भी हैं
 हम हलाहल पी हँसे हैं हर तिमिर काँपा यही इतिहास मेरा
 मानवी जय की पताका हम, प्रभा के तूर्य धिक् यह लोभ घेरा ।
 बज उठें फिर शंख मंगल आरती के झाँझ और मृदंग,

भागे मुँह छिपा तम जो घनेरा है।
उठो साथी उठो अभी सबेरा है।
उठो अब भी सबेरा है


प्रस्तुत है स्थूललक्ष्य ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र कृष्ण पक्ष पञ्चमी विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार 30 मार्च 2024 का सदाचार संप्रेषण
  *९७५ वां* सार -संक्षेप
1 दानशील

प्रतिदिन इन सदाचार संप्रेषणों के विचार श्रवणसुभग आनन्ददायक तो होते ही हैं विचारोपरान्त करणीय भी होते हैं और यदि हमें इस सिलसिले का अभ्यास हो जाए
तो दोषयुक्त होने पर भी हम सहज कर्मों का त्याग नहीं करेंगे
 आइये अद्भुत विचारों से लाभ प्राप्त करने के लिए प्रवेश करें आज की वेला में

हम सभी को प्रतिष्ठा/प्रशंसा प्रिय लगती है लेकिन जगत के मूलस्वर के मधुर गान और दैव के वरदान मनोनिग्रह से ही मनुष्य जीवन की उपयोगिता सिद्ध होती है
मन को वश में रखने का सर्वश्रेष्ठ उपाय यही है कि उसे सदैव सद्विचार निमग्न रखा जाए सद्गुणों से भक्ति का हम प्रयास करते रहें तो हम शक्तिमय हो जाएंगे हमारा तेजस प्रकट होने लगेगा हम अपयश नहीं चाहते सुख संपत्ति चाहते हैं अपने शरीर की शुद्धि के लिए मन के निग्रह के लिए बुद्धि के प्राखर्य हेतु एक सहज क्रम बनाना होगा समय सारिणी बनानी होगी हम शस्त्र शास्त्र शक्ति सामर्थ्य पौरुष पराक्रम से अभिमन्त्रित होने का प्रयास करते रहें
राष्ट्रहित के कार्य करते चलें आत्मनियन्त्रण का प्रयास करें

प्रतिष्ठा या प्रशंसा के लिए हम आग्रही हैं
मगर यह ध्यान हो क्या सच मनस् के निग्रही हैं
मनोनिग्रह सदा ही दैव का वरदान होता
जगत के मूलस्वर का मधुर मोहक गान होता

संसार का आनन्द हमें तभी प्राप्त होगा जब हमारे अन्दर स्थित संसार में सामञ्जस्य समन्वय रहेगा
भगवान् कृष्ण से अर्जुन पूछते हैं

किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।

अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।8.1।।

वह ब्रह्म क्या है,अध्यात्म क्या है, कर्म क्या है? अधिभूत, अधिदैव क्या हैं?
और पूछते हैं

यहाँ अधियज्ञ कौन है? इस शरीर में कैसे स्थित है ? संयत चित्त वाले मनुष्यों द्वारा अन्तकाल में आप किस प्रकार जाने जाते हैं?
तो भगवान् उसे समझाते हैं
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव

दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा

योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।8.28।।


योगी शुक्लमार्ग,कृष्णमार्ग के रहस्य को जानकर वेदों,यज्ञों, तपों में तथा दान में जो भी पुण्यफल बताए गए हैं, उन सभी का अतिक्रमण कर जाता है, आदिस्थान परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

हमारी संस्कृति संश्लेषणात्मक है संयुक्त रहने में हम प्रसन्न रहते हैं
हम कहते हैं
 अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया पङ्कज जी का नाम किस प्रसंग में लिया लेखपाल क्या ढूंढ रहा था कल आचार्य जी कहां जा रहे हैं जानने के लिए सुनें