सपनों के पंख नहीं होते,
होते न सत्य के पांव कभीवीरों के लेंहड़ न होते हैं,
संतों के होते गांव कभी?
क्या कहीं प्रतिष्ठा की बाजारें लगती हैं,
पौरुष का कहीं न होते देखा मोल -तोल l
पुरुषार्थ पराक्रम मौन मनन में रत रहता,
पर संकट में अड़ जाता अपना वक्ष खोल ll
जो नियमनीतियों की परिभाषा गढ़ते हैं,
वो शायद ही उनका परिपालन कर पाते l
पर कभी न जिनने इनकी परिभाषा बांची,
वो ही झंझाएं झेल शिखर सर कर जाते ll
यह भारत है दैवी आभा से ओतप्रोत,
इसका सपूत हरदम विश्वासी होता है ll
जो नहीं यहां की माटी में जन्मा जूझा,
जीवन का भार कहार सदृश ही ढोता है ll
आओ भारत की माटी का सम्मान करें,
इसका रोली चन्दन से मस्तक सजा रहे
अध्यात्म शौर्य तप वैभव त्याग पराक्रम से,
फहराती नभ में भारत मां की ध्वजा रहे ll
ओम शङ्कर
प्रस्तुत है अप्रतिवीर्य ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र कृष्ण पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार 1 अप्रैल 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
*९७७ वां* सार -संक्षेप
1 अतुल शक्तिशाली
हम सद्गुणी बनें, षड्रिपु हमसे दूर रहें, कर्म करते चलें लेकिन फल की इच्छा न करते हुए इसके लिए महत् कार्य करने वाले अत्यन्त भावुक उद्हस्त आचार्य जी नित्य प्रयास करते हैं हमें इसकी महत्ता समझनी चाहिए
भाव -विचार -क्रिया के समन्वय वाले इस संसार के विभ्रमों के उपयुक्त समाधान सुझाने वाले,हमारे शौर्य को उत्थित करने वाले,हमें चिन्तन मनन निदिध्यासन अध्ययन स्वाध्याय लेखन की ओर उन्मुख करने वाले, हमें राष्ट्र के प्रति निष्ठावान् बनाने वाले हमें उल्लसित उद्भासित उद्बुद्ध करने वाले ये सदाचारमय विचार अद्भुत हैं
हम मात्र नाम और रूप वाले मनुष्य न रहें मनुष्यत्व की अनुभूति करते चलें तो निश्चित रूप से हमें आनन्द प्राप्त होगा
शृङ्गार शतक और नीति शतक की रचना करने वाले प्रतापी राजा भर्तृहरि ने वैराग्यशतक क्यों लिखा आचार्य जी ने इससे संबन्धित एक कथा सुनाई
अपनी पत्नी के विश्वासघात ने राजा भर्तृहरि का वैराग्य जगा दिया। विशाल साम्राज्य के धनी राजा भर्तृहरि की पिंगला नामक अत्यंत रूपवती रानी थी। वह रानी राजा से प्रेम न कर एक अश्वपाल से प्रेम करती थी और वह अश्वपाल रानी के बजाय राजनर्तकी को चाहता था। वह राजनर्तकी अश्वपाल से प्रेम न कर राजा भर्तृहरि से स्नेह करती थी।
एक दिन एक योगी ने राजा को एक अमरफल दिया। राजा ने वह फल खाने के लिए रानी को दिया। परंतु मोहवश रानी ने वह फल अश्वपाल को , अश्वपाल ने राजनर्तकी को दे दिया। किन्तु राजनर्तकी ने जब वह फल राजा को दिया, तभी सारा भेद खुल गया । रानी की बेवफाई देखकर राजा के पैरों तले जमीन खिसक गयी।
राजा ने अपने नीतिशतक में इस घटना के बारे में लिख दिया
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता।
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः।
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या।
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च।।
मैं जिसका सतत चिंतन करता हूँ वह मेरी पत्नी मेरे प्रति उदासीन है। वह भी जिसको चाहती है वह किसी दूसरी ही स्त्री में आसक्त है। वह राजनर्तकी मेरे प्रति स्नेहभाव रखती है। उस पत्नी को अश्वपाल को राजनर्तकी को धिक्कार है उस कामदेव को धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने निद्रा न आने पर निद्रा लाने के लिए क्या सुझाव दिया जानने के लिए सुनें
