2.4.24

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का चैत्र कृष्ण पक्ष अष्टमी विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार 2 अप्रैल 2024 का सदाचार सम्प्रेषण *९७८ वां* सार -संक्षेप

 


सुखद यह संसार जबतक मनस् मंगलमय रहे,
तन सबल संपुष्ट आज्ञावान कृति तन्मय रहे,
और हो परिवार का विस्तार सेवाभाव युत,
हर तरफ गुणगान अपने नाम का होता रहे।
और जब विपरीत इसके कुछ कभी जब हो चला,
चल पड़ा संसार को ही कोसने का सिलसिला।
यह जगत परमात्म सत्ता का महत् विस्तार है,
आइए अनुभव करें यह शुभ सुखद आधार है।
----- ओम शङ्कर

प्रस्तुत है अभिनिविष्ट ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र कृष्ण पक्ष अष्टमी विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार 2 अप्रैल 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
  *९७८ वां* सार -संक्षेप
1 दृढ़निश्चयी

हम दृढ़निश्चय करें कि किसी भी कार्य को एक निश्चित समय पर करेंगे तो यह हमारी उन्नति में सहायक होगा और पूजा भाव से किसी भी कार्य को करने में हमें प्रसन्नता की अनुभूति होगी, हम उत्साहित, कर्मशील, आनन्दित रहेंगे, हमारे अन्दर शौर्यप्रमंडित अध्यात्म का चैतन्य जाग्रत होगा
शौर्य एक सद्गुण है यह किसी को समाप्त करने का उपक्रम नहीं है यह हमारी आत्मशक्ति है हमारा आत्मबोध, आत्मशोध और आत्मविश्वास है
हम
ॐ सहनाववतु सहनौ भुनक्तु। सहवीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिःll वाला भाव रखते हैं

अपने भाव विचार कार्य चिन्तन मनन व्यवहार की शुद्धि पर हमें ध्यान देना है और इसके लिए समय सारिणी अत्यावश्यक है सही समय पर जागरण और शयन होना चाहिए उचित खानपान पर भी ध्यान देना होगा सही संगति भी आवश्यक है नई पीढ़ी को भी मार्गदर्शन देते रहें
दंभ पतन का कारण होता है हमें दम्भ से दूर रहना चाहिए
मनुष्य जीवन को साधना और मनुष्य जीवन की साधना अद्भुत है

इन सदाचार संप्रेषणों का सिलसिला हमें सद्गुणों से सम्पन्न बनाने का एक अद्भुत उपाय है
गीता में भगवान् कहते हैं

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।4.16।।

कर्म और अकर्म के विषय में बुद्धिमान् पुरुष भी भ्रमित हो जाते हैं। अतः मैं तुम्हें कर्म और अकर्म का स्वरूप समझाऊँगा जिसको जान लेने पर तुम संसार बन्धन से मुक्ति पा लोगे

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।4.17।।

कर्म की गति गहन है अतः कर्म अकर्म विकर्म को जान लेना चाहिए

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18।।

जो व्यक्ति कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है वह बुद्धिमान् है, वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है।
निःस्वार्थ भाव से कर्म का आचरण करने पर चित्त शुद्ध होता है


यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः।

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः।।4.19।।

जिसके सारे कार्य इन्द्रिय कामना व संकल्प से रहित हैं, ऐसे उस ज्ञान रूपी अग्नि से भस्म हुए कर्मों वाले पुरुष को पण्डित कहा जाता है

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः।।4.20।।

जो व्यक्ति कर्मफल की आसक्ति त्याग नित्य तृप्त और सभी आश्रयों से रहित है वह कर्मों में प्रवृत्त होते हुए भी कुछ भी नहीं करता है।।

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।

शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।4.21।।

जो आशा रहित है,जिसने चित्त और शरीर को संयमित किया है, जिसने सारे परिग्रहों का त्याग किया है, ऐसा व्यक्ति को शारीरिक कर्म करते हुए भी पाप नहीं लगता


यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः।

समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।4.22।।

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया प्रमेन्द्र जी भैया संदीप शुक्ल जी का नाम क्यों लिया अंग्रेजी में छपे निमन्त्रण पत्र को देखकर कौन उस कार्यक्रम में नहीं जाता था विवाह कार्यक्रमों में कौन उपहारस्वरूप पुस्तकें देता था जानने के लिए सुनें