प्रस्तुत है आजानेय ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र शुक्ल पक्ष द्वितीया विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर )तदनुसार 10 अप्रैल 2024 बुधवार का सदाचार सम्प्रेषण
*९८६ वां* सार -संक्षेप1 निर्भय
निर्भय होना , तेजस्वी होना , हम अण्वंशावतारियों का एक दूसरे से संपर्कित रहकर संगठन खड़ा करना, संगठन का हिस्सा बनना शौर्य प्रमंडित अध्यात्म के व्यावहारिक स्वरूप हैं
परस्पर का संपर्क सम्बन्ध मनुष्य के जीवन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाग है परस्पर की सूचनाओं का आदान प्रदान हमें एक दूसरे से संयुत रखता है साधनों की बहुतायत है इस कारण इन साधनों का सदुपयोग कर हम आत्मोपासक यदि एक दूसरे के सुख, दुःख, कार्य -व्यवहार आदि से संपर्कित रहेंगे तो हमें आनन्द की अनुभूति होगी यही सामाजिकता है इसी से समाजोन्मुखता प्रारम्भ होती है हमारा लक्ष्य भी है राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष
हम केवल अपनी मोमबत्ती जलाकर चलेंगे तो घोर अंधकार को दूर नहीं कर पाएंगे लेकिन एक साथ हजारों लाखों जला देंगे तो वह दूर भाग जाएगा यही परमात्मा की शक्तियों से भरा संगठन कहलाता है सैन्य संगठन भी इसी कारण एक शक्तिशाली संगठन होता है
ये सदाचारमय विचार हमारे जीवन के लिए अत्यन्त महत्त्व के हैं हमें पुरुष से महापुरुष बनाने की क्षमता रखते हैं ये अपना जीवन -तिमिर भगाने का उपाय हैं अनेक रहस्यों को उजागर करते हैं ये हमें मनुष्यत्व की अनुभूति कराते हैं ये हमें बताते हैं कि हम निष्क्रिय रहने वाले जीवात्मा नहीं हैं
वर्तमान में ध्यान देना जीवन जीने की शैली है
आचार्य जी ने परामर्श दिया कि हमें महापुरुषों जैसे डा हेडगेवार आदि की जीवनियां अवश्य पढ़नीं चाहिए क्योंकि उनसे हमें प्रेरणा मिलती है श्रीरामचरित मानस गीता उपनिषद् ब्रह्मसंहिता आदि हमें शक्ति प्रेरणा विचार ऊर्जा प्रदान करते हैं
ब्रह्मसंहिता से
अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम्
आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च।
वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ
गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि॥
जो द्वैत से रहित हैं,अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते, जो सबके आदि हैं लेकिन जिनका कहीं आदि नहीं है एवं जो अनन्त रूपों में प्रकाशित है, जो सनातन पुरुष होते हुए भी नित्य नवयुवक की तरह के हैं, जिनका स्वरूप वेदों में भी प्राप्त नहीं होता है, भक्ति प्राप्त हो जाने पर जो दुर्लभ नहीं हैं जो अपने भक्तों के लिए सुलभ हैं,मैं उन आदिपुरुष भगवान् गोविन्द की शरण लेता हूँ।
गीता में
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।4.6।।
यद्यपि मैं अजन्मा,अविनाशी स्वरूप हूँ और भूतमात्र का ईश्वर हूँ फिर भी अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर मैं अपनी माया से जन्म लेता हूँ।।
और जन्म लेने का कारण है साधुओं की रक्षा दुष्टों का विनाश
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया मुकेश जी का नाम क्यों लिया किसे बौद्धिक का विषय मिल गया पत्र -संग्रह के विषय में आचार्य जी ने क्या बताया राष्ट्रीय अधिवेशन के विषय में आचार्य जी मे क्या कहा जानने के लिए सुनें