15.4.24

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का चैत्र शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर )तदनुसार 15 अप्रैल 2024 का सदाचार सम्प्रेषण ९९१ वां सार -संक्षेप

 अभी फिर से हमारा त्याग संसृति का शिखर होगा

 हमारी साधना आँचल प्रकृति का फिर सँवारेगी

 करेगी आरती धरती हमारे भाल की फिर से

 अभी ये ऋद्धियाँ फिर आर्त हो हमको पुकारेंगी।


प्रस्तुत है अरिदमन ¹  आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र शुक्ल पक्ष सप्तमी विक्रमी संवत् २०८१  (कालयुक्त संवत्सर )तदनुसार  15 अप्रैल 2024 का  सदाचार सम्प्रेषण 

  ९९१ वां सार -संक्षेप

1 शत्रुओं का नाश करने वाला


हमें हनुमान जी के प्रसाद के रूप में मिले इन सदाचार संप्रेषणों की उपेक्षा नहीं करनी है क्योंकि इनके विचार हमें उत्थित और उत्साहित करते हैं हमें भौतिक स्तर से ऊपर उठाते हैं हमें यह बताते हैं कि हमारा जन्म अनेक असंतुलनों को ठीक करने के लिए हुआ है आचार्य जी के आसपास सांसारिक असंबद्धताएं असुविधाएं भरपूर होने के बाद भी आचार्य जी नित्य अपना बहुमूल्य समय हमें दे रहे हैं हमें इसका महत्त्व समझना चाहिए

भावना जब कामना में डूबने लगती है तो वासना बहुत कष्ट पहुंचाती है जिस प्रकार इस वासना ने शान्तनु को घेर लिया था लेकिन जो संयमी होता है वह अपनी सांसारिक इच्छाओं को दमित कर देता है जिस प्रकार देवव्रत ने अपनी इच्छाओं को दमित किया 

शान्तनु ने दूसरा विवाह निषाद कन्या सत्यवती से किया था। इस विवाह को कराने के लिए ही देवव्रत ने राजगद्दी पर न बैठने और आजीवन कुँवारा रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की जिसके कारण उनका नाम भीष्म पड़ा

इसका परिणाम हमने देखा  फिर द्वापर समाप्त हुआ कलियुग प्रारम्भ हुआ जन्मेजय का नाग -यज्ञ शमित किया गया

और घटनाएं हुईं 

हमने अपने कर्म को अध्यात्म में बहुत अधिक विलीन कर दिया संसार में मतलब नहीं रखा जबकि हमें सांसारिकता और आध्यात्मिकता में संतुलन करना था दुष्परिणाम सामने आए लेकिन हमारी सांस्कृतिक ज्योति बुझी नहीं मन्द जरूर पड़ गई

उस समय से लेकर आज तक भय भ्रम उनके मन में उत्पन्न होते रहे हैं जो 

जो सम्पन्न रहे हैं प्रजातान्त्रिक शासन प्रजा को प्रसन्न रखना चाहता है चाहे मां धरती की विभूति भी त्यागनी पड़े  प्रजा जब बोझ बन जाती है तो ढोनी तो  पड़ती ही है  लेकिन  उनके दिलों पर क्या बीतती है जो अध्यात्म की भूमि पर रहते हैं और संसार को ढोने का काम करते हैं हमें इस पर विचार करना चाहिए इस सरकार को भी हम कोस रहे हैं कि यह सवर्णों पर ध्यान नहीं दे रही जबकि हमें कोसना नहीं चाहिए हम सवर्ण अवर्ण नहीं हैं हम भारत माता के पुत्र हैं 

यह सरकार ईमानदारी से काम कर रही है सन् २००४ के आसपास एक घटना हुई जब मंडल कमीशन लाद दिया गया था और अनेक जवान जवान लोग जल गए थे उस घटना पर लिखी आचार्य जी की' विश्वास ' कविता प्रस्तुत है 



विश्वास 


जवानी सत्य का संधान करने को उठी थी पर

 समय के बदचलन व्यवहार ने बर्बाद कर डाला

 सलीबें ढो रहा बेबस कसकती पीठ पर 'संयम' 

जड़ा है “भावना” के होंठ पर “गुजरात का ताला | 


जवानी जल रही जिन्दा सड़क पर राजधानी के

 जरा की भोग लिप्सा कर रही अभिचार का उपक्रम

 कलम भी हो गयी आदी बहारों को रिझाने की

 सदा की आँधियाँ लहरा रहीं बस भोग का परचम | 


हमारी बेबसी का बोझ ढोता यह हमारा तन 

कि जो अब खो गया बाजीगरों के सब्जबागों में 

हमारे पर नशा इतना चढ़ाया जा चुका शायद

 कि हम मदहोश होकर झूमते हैं बैठ नागों में। 


हमारे गीत अब परछाइयाँ 'उनकी' बने फिरते 

'गगन के मीत' अब 'पाताल' का 'दस्तर' सजाते हैं 

हवायें हो गयीं रोगी पचाकर भोग की साँसें

 हमारे 'वज्र ' “उनके” द्वार पर नौबत बजाते हैं।


मनीषा राजरोगी हो गयी उन्मुक्त प्राची की

 धरा का शौर्य पौरुष बेचकर निश्चित सोया है 

कंटीली नागफनियों के उगे हर पोर पर कोपल

 जहर वाली कुदालों ने चमन में बीज बोया है। 


पृथा का पुत्र कब तक और ढोयेगा युधिष्ठिर को

 अँगूठे और कब तक स्वार्थी अभियान माँगेंगे

 छिपायेगी पृथा कब तक घिनौना प्यार सूरज का

 व्यथा के साथ जब जब कर्ण के अभिमान जागेंगे। 


सलोनी नींद में कब तक रहेगा इन्द्र का वैभव

 पलीते जल उठे हैं हाथ में बेबस हवाओं के

 सुलगते जा रहे अरमान निश्चय कर चुके हैं अब

 कि, कुछ भी हो शवों को फूँक देंगे हम दबावों के । 


हमें अभिमान हैं हम सर्प को गोपय पिलाते हैं 

हमें यह ज्ञान है कमजोर दुश्मन क्रूर होता है।

 जम्हाई ले रहा भी सिंह गीदड़ हो नहीं सकता

 हमें अनुमान है भोगी, छली भरपूर होता है।


हमें तुमसे न किंचित भय तुम्हें हम जानते हैं पर 

सँंपोले जन चुकी नागिन फुफकती दूर बैठी है

 भले हम आस्तीनें झाड़ कर निश्चित हो जायें

 हमारी हर 'कली' उसके लिये मजबूर बैठी है। 


हमारा त्याग वैभव की कमी है यह न समझो तुम 

अहिंसा और कायर रूप का अन्तर समझते हैं

 हमें विश्वास है संसार भंगुर है घड़े जैसा

 इसी से हम मरण के देव से हठकर उलझते हैं। 


अभी फिर से हमारा त्याग संसृति का शिखर होगा

 हमारी साधना आँचल प्रकृति का फिर सँवारेगी

 करेगी आरती धरती हमारे भाल की फिर से

 अभी ये ऋद्धियाँ फिर आर्त हो हमको पुकारेंगी।

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