प्रस्तुत है अरुज ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र शुक्ल पक्ष दशमी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर )तदनुसार 18 अप्रैल 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
९९४ वां सार -संक्षेप
1स्वस्थ
स्वस्थ मन रखते हुए और संतुष्ट रहने के लिए अधिक से अधिक प्रयासों का संकल्प करते हुए परमात्मा के भाव में विलीन होते हुए और यह अनुभव करते हुए कि परमात्मा हमारे भीतर विद्यमान है साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित इस सदाचार संप्रेषण के तत्त्व को खोजने का हमें प्रयास करना चाहिए हम इसके विचारों को आत्मसात् करने का प्रयास करें हम लोगों के विकास से आनन्दित होने वाले शास्त्रज्ञ आचार्य जी नित्य अपना बहुमूल्य समय देते हैं आनन्द के प्रवाह में बहने हेतु हमें इस प्रकाश का लाभ उठाना चाहिए साहित्य को समझने से हम कभी भटक नहीं सकते
मानव जीवन वास्तव में विलक्षण और अनुपम है
समस्याएं सामने आती हैं तो हमें समाधान भी मिलते हैं
अनगिनत रूप इस जीवन के क्रमवार बताना मुश्किल है
दीपक जैसी यह ज्योत टिमकती जलती रहती तिल तिल है
तिल तिल जलकर प्रकाश देते रहना ही इसका लक्षण है
मानव जीवन सचमुच में अद्भुत अनुपम और विलक्षण है
हम पुरुषों को ऐसा लगता है कि संसार में सार भी है
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
और संसार असार भी है
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृपु अवसि नरक अधिकारी।
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।8.11।।
वेद को जानने वाले विद्वान् जिसे अक्षर कहते हैं रागों से रहित यत्नशील पुरुषों का जिसमें प्रवेश रहता है जिसकी इच्छा से साधक जन ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं उस लक्ष्य को मैं तुम्हें संक्षेप में बताऊंगा
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।8.12।
मनस् संसारी पुरुष के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व है
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥
मन ही सभी मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का मुख्य कारण है। विषयों में आसक्त मन बन्धन का कारण है और कामना,संकल्प से रहित मन मोक्ष का
आचार्य जी ने परामर्श दिया कि प्रातःकाल हम जल्दी जागें सही खानपान का ध्यान दें
और यह भी परामर्श दिया कि ईशावस्योपनिषद् ( ईशोपनिषद् )के अठारहों छंद हम अवश्य पढ़ें
जैसे
अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत् तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति ll
और
पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात् शाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया विनय अजमानी जी का नाम क्यों लिया
स को फ कौन कहता था
भैया मनीष कृष्णा जी का उल्लेख क्यों हुआ
विद्यालय में पंजीरी बंटने का क्या प्रसंग है जानने के लिए सुनें