3.4.24

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का चैत्र कृष्ण पक्ष नवमी /दशमी विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार 3 अप्रैल 2024 का सदाचार सम्प्रेषण *९७९ वां* सार -संक्षेप

 सह नौ यशः। सह नौ ब्रह्मवर्चसम्‌। अथातः संहिताया उपनिषदं व्याख्यास्यामः ...


प्रस्तुत है दृष्टप्रत्यय ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र कृष्ण पक्ष नवमी /दशमी विक्रमी संवत् २०८० तदनुसार 3 अप्रैल 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
  *९७९ वां* सार -संक्षेप
1 विश्वास रखने वाला

हम विश्वास रखें तो निश्चित रूप से ये सदाचार संप्रेषण अद्भुत हैं इनके विचार हमें अद्भुतता के साथ उद्भासित उल्लसित उद्बुद्ध करते हैं हमें इनका महत्त्व समझना चाहिए भारतीय गुरु शिष्य परम्परा का यह अप्रतिम निर्वहन है
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व अद्भुत है जहां एक ओर कष्ट हैं तो दूसरी ओर सुख, आनन्द भी है हमारे अन्दर भी संसार है और बाहर भी
 अन्दर वाले संसार की अनुभूति अध्यात्म की प्राप्ति के साथ अनुभव की जा सकती है कुछ वृत्तियां बाह्य प्रभावों से प्रभावित होती हैं लेकिन अन्तर्भावों से प्रभावित होने वाली आश्चर्यजनक वृत्तियां भी होती हैं
आत्मिक भाव विलक्षण होता है

नानकदेव, अमरदास, जयदेव,बुल्लेशाह, कबीर, तुलसीदास आदि अनगिनत महान् संत रहे हैं संतों की एक लम्बी परम्परा चली आ रही है
इन संतों ने हमारा जागरण किया केवल निर्लिप्त रहने की शिक्षा नहीं दी

आचार्य जी ने परामर्श दिया कि हम तैत्तिरीय उपनिषद् का अध्ययन अवश्य करें इसकी शिक्षावल्ली अद्भुत है अध्ययन के पश्चात् परस्पर चिन्तन विचार करें प्रश्नोत्तर से ज्ञान का कोष खुल जाएगा

इसी उपनिषद् में है

अन्नं बहु कुर्वीत। तद् व्रतम्‌। पृथिवी वा अन्नम्। आकाशोऽन्नादः। पृथिव्यामाकाशः प्रतिष्ठितः।
आकाशे पृथिवी प्रतिष्ठिता।तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम्‌।स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति। अन्नवानन्नादो भवति। महान्भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन। महान् कीर्त्या॥


तुम अन्न की वृद्धि और अन्न का संचय करोगे, क्योंकि वह भी तुम्हारे श्रम का व्रत है। पृथ्वी भी अन्न है, आकाश अन्न का भोक्ता, आकाश पृथ्वी पर प्रतिष्ठित है तो पृथ्वी आकाश पर, यहाँ भी अन्न पर अन्न प्रतिष्ठित है। जो अन्न पर प्रतिष्ठित इस अन्न को जानता है, स्वयं दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है। वह अन्न का स्वामी, अन्न का भोक्ता बन जाता है, वह प्रजा, पशुधन, ब्रह्मतेज से महान् हो जाता है, वह कीर्ति से महान् बन जाता है।



हमारा दुर्भाग्य रहा है कि हमारे अंदर जड़ के प्रति आकर्षण पैदा किया गया और चेतन के प्रति विकर्षण

जड़त्व की सेवा होती है जड़त्व की उपासना नहीं होती

अन्न प्राणवान है औऱ स्वर्ण जड़ है इसलिए हमारे यहां कहा गया है कि अन्न पैदा करो
  जड़त्व में हम चैतन्य का अधिष्ठान कर देते हैं तब उसकी पूजा करते हैं जैसे मूर्ति में प्राणों का अधिष्ठान करने पर हम पूजा करते हैं

न कञ्चन वसतौ प्रत्याचक्षीत। तद् व्रतम्‌।तस्माद्यया कया च विधया बह्वन्नं प्राप्नुयात्। अराध्यस्मा अन्नमित्याचक्षते।एतद्वै मुखतोऽन्नं राद्धम्। मुखतोऽस्मा अन्नं राध्यते। एतद् वा मध्यतोऽनं राद्धम्। मध्यतोऽस्मा अन्नं राध्यते

 अपने घर आए किसी भी आगन्तुक की अवमानना न करें , वह भी तुम्हारे श्रम का व्रत है।
अतएव किसी भी तरह तुम प्रचुर अन्न संग्रह करो। अपने घर में आए अतिथि से कहा जाता है अन्न प्रस्तुत है..

अतिथि यदि लूट लेगा यह सोच न रखें इस सोच के कारण अपने सद्धर्म को त्यागना उचित नहीं है यह कायरता है शौर्य प्रमंडित अध्यात्म में शक्ति बुद्धि सब चैतन्य में रहता है
माया के प्रभाव में बुद्धि व्यामोहित हो जाती है
मायामय संसार में अपने आत्मबोध के तत्त्व को जान लेने पर हमारा ज्ञान खुल जाता है

आचार्य जी ने परामर्श दिया अध्ययन स्वाध्याय लेखन चिन्तन मनन करें कार्यव्यवहार करते रहें लेकिन व्याकुल न हों क्यों कि हम परमात्मा के प्रतिनिधि हैं
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने नौ का क्या अर्थ बताया भावों की अभिव्यक्ति गहराने पर क्या होता है आदि जानने के लिए सुनें