सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥171॥
प्रस्तुत है उद्योगिन् ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज चैत्र शुक्ल पक्ष त्रयोदशी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 21 अप्रैल 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
९९७ वां सार -संक्षेप
¹ उद्यमी
कल आचार्य जी ने भगवान् राम के विश्वरूप की चर्चा की थी वह विश्वरूप जिसे मन्दोदरी ने रावण को समझाने की चेष्टा की थी
बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासु॥ 14॥
इसी प्रकार गीता में भी
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रं
पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं
पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप।।11.16।।
मैं आपकी अनेक भुजाओं,पेट,मुंह और आंखों से युक्त तथा सब ओर से अनन्त रूपों वाला देखता हूँ। हे विश्वरूप! मैं आपके न अन्त को देखता हूँ, न मध्य को और न ही आदि को
भगवान् कृष्ण ने अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखाया था
संसार में रूप धारण करने के अनेक कारण होते हैं उन कारणों का प्रभाव अनेक रूपों में व्यक्त होता है संसार में लोभ काम मोह क्रोध मद मत्सर का अद्भुत संयोग है इनका सामञ्जस्य आश्चर्यजनक होता है हमें इनका सामञ्जस्य करके अपने जीवन को बिताना चाहिए इन विकारों का अच्छा लगना और अधिक अद्भुतता है बिना हमारे जाने कि अमुक वस्तु विकृत पदार्थों से बनी है वह वस्तु भी हमें अच्छी लगती है और जब जान लेते हैं तो उस पर विपरीत प्रतिक्रिया ही होती है
मनुष्य जल्दी जान ही तो नहीं पाता
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई। जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥2॥
वही आपको जान पाता है, जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही रूप बन जाता है
हे प्रभु राम !
हे भक्तों के हृदय को शीतलता पहुंचाने वाले चंदन! आपकी ही कृपा से भक्तजन आपको जान पाते हैं
परमज्ञानी संसार में शरीर धारण करके आते हैं अद्भुत कार्यव्यवहार में अपने को लगाए रहते हैं
हमें इस संसार के संसारत्व को तो समझना ही चाहिए अपनी प्राणिक ऊर्जा को भी ठीक प्रकार से विश्लेषित करना चाहिए
शृण्वतां स्वकथा: कृष्ण: पुण्यश्रवण कीर्तन:।
हृदयन्त:स्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ॥
भगवान् श्री कृष्ण, जो हर किसी के हृदय में परमात्मा हैं और सच्चे भक्त के दाता हैं, उस भक्त के हृदय से भौतिक आनंद की इच्छा को साफ करते हैं जिसने उनके संदेशों को सुनने की इच्छा विकसित की है
ऐसे संदेशों को ठीक से सुनने अधिक से अधिक सुनने और जपने पर भावों में रमने पर वे भक्त पुण्यात्मा बन जाते हैं।उनके कल्मष दूर होने लगते हैं भौतिकता से दूर होने पर हम अपने को पहचानने लगते हैं
तदा रजस-तमो-भावः
काम-लोभदायश च ये
चेता एतैर अनाविद्धं
स्थितं सत्त्वे प्रसीदति
आचार्य जी ने परामर्श दिया कि अध्ययन स्वाध्याय लेखन चिन्तन की ओर हम उन्मुख हों इसके साथ सांसारिकता से भी संतुलन बनाएं
इसके अतिरिक्त किसका स्वर्ण ठग ने ठग लिया था श्रीमद्भागवत हृदय ग्रंथ की चर्चा आचार्य जी ने क्यों की जानने के लिए सुनें