प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज वैसाख कृष्ण पक्ष चतुर्थी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 27 अप्रैल 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
१००३ वां सार -संक्षेप
हमारे यहां का साहित्य अत्यन्त विलक्षण है जो भी साहित्य हमें प्राप्त है उसका हमें लाभ उठाना चाहिए और अधिक से अधिक लोगों को प्रेरित करना चाहिए कि वे भी इससे लाभान्वित हों तात्विक विषयों को समझने के लिए प्रश्नोत्तर करें आपस में चर्चा करें इसी से ज्ञान का द्वार खुलेगा जिससे हमें शक्ति प्राप्त होगी जो विचार हमारे मन में आएंगे वो समाज और देश को शक्तिशाली बनाएंगे सद्विचारों को व्यवहार में उतारें
शक्ति भक्ति कौशल आत्मविश्वास की अनुभूति कराने वाले हमारे यहां के ग्रंथ अद्भुत हैं
ऐसा ही हमारा हित करने वाला एक ग्रंथ है विवेकचूड़ामणि जो आठवीं शताब्दी के आसपास भगवान् शंकराचार्य द्वारा रचित काव्यात्मक दोहों का एक संग्रह है। यह संकलन जिस दार्शनिक विचारधारा को उजागर करता है उसे 'अद्वैत वेदांत' या गैर-द्वैतवाद कहा जाता है इसी पुस्तक से
जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः पुंस्त्वं ततो विप्रता
तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता विद्वत्त्वमस्मात्परम्।
आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो ब्रह्मात्मना संस्थिति
र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैर्विना लभ्यते।।2।।
सभी प्राणियों के लिए मानव के रूप में जन्म लेना ही कठिन है, पुरुषत्व तो और भी कठिन, उससे भी दुर्लभ है ब्राह्मणत्व,वैदिक धर्म के मार्ग के प्रति लगाव और भी दुर्लभ, फिर इससे भी ऊँचा शास्त्रों का पाण्डित्य, आत्म अनात्म के बीच भेदभाव, बोध, और ब्रह्म के साथ पहचान की स्थिति में बने रहना - ये क्रम में अगले आते हैं। ऐसी मुक्ति सौ करोड़ जन्मों के पुण्यों के बिना प्राप्त नहीं की जा सकती। हमें सत्कर्मों में रत होना चाहिए सारा संसार सूक्ष्म रूप में मनुष्य के शरीर में विद्यमान है
तत्त्वबोध आत्मबोध के भाव बहुत गहन हैं क्या करूं क्या न करूं इसमें ज्ञानी भी विमोहित हो जाते हैं
गीता में भगवान् कृष्ण अर्जुन को कर्म अकर्म का भेद बताते हैं कर्मविहीन होने पर कुछ नहीं मिलेगा
हमें अपने मनुष्यत्व की अनुभूति करनी चाहिए मनुष्य जब विस्तार करता है तो ऐसा लगता है सारा ब्रह्माण्ड उसके अन्दर अवस्थित है
इस मनुष्यत्व का विस्तार कर दूसरों को प्रभावित करें अंधकार दूर हो जाएगा आचार्य जी परामर्श दे रहे हैं कि मन में जो भाव आएं उन्हें अवश्य लिखें आचार्य जी के मन में भी भाव उठे और उन्होंने अंकित कर दिए
यह संसार असार सारमय अद्भुत गजब खिलौना है
कुश कांटों के परिधान पहनकर भी सुन्दर है लोना है...
विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वेदोभयं सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥
विद्या अविद्या दोनों को हमें जानना चाहिए मरणधर्मा संसार में हम अमरत्व की उपासना भी करते हैं साथ ही अमरत्व की खोज भी करते हैं
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया प्रशान्त जी भैया विवेक जी का नाम क्यों लिया किसके पत्र की बहुत चर्चा हुई आदि जानने के लिए सुनें