कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरु जोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग॥102 ख॥
प्रस्तुत है आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज वैसाख कृष्ण पक्ष अष्टमी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 1 मई 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
१००७ वां सार -संक्षेप
हमारा संगठन युगभारती एक व्यावहारिक संगठन है जिसका उद्देश्य है राष्ट्र -निष्ठा से परिपूर्ण समाजोन्मुखी व्यक्तित्व का उत्कर्ष
नित्य सदाचारमय विचारों को ग्रहण करते हुए विरक्त भावों और अनुरक्त भावों में तालमेल बैठाते हुए अपने राष्ट्र के संवर्धन हेतु हम प्रयासरत रहते हैं
हम ध्यान धारणा संयम सेवा त्याग तप दान समर्पण भक्ति शक्ति स्वाध्याय विश्वास सद्व्यवहार खाद्याखाद्य विवेक आदि सद्गुणों को अपनाने के लिए लालायित रहते हैं इन्हीं सद्गुणों से अगली पीढ़ी को भी संक्रमित करने का प्रयास करते रहते हैं
हमें विश्वास रहता है कि हनुमान जी सदैव हमारी रक्षा करते रहते हैं
जो व्यक्ति और संगठन हमारे विचारों से जुड़ते हैं वे हमारे अंग हो जाते हैं
इन सदाचार वेलाओं के माध्यम से आचार्य जी नित्य हमें प्रेरित करते हैं यह परमात्मा की महती कृपा है सत् और असत् का विभाजन इन वेलाओं का एक विषय रहता है
इस घोर कलियुग में हमारे अन्दर रामकाज करने की आतुरता होनी चाहिए आतुर होने की प्रेरणा के लिए आइये प्रवेश करें श्रीरामचरित मानस में रामत्व की अनुभूति करते हुए
मानस एक अद्भुत ग्रंथ है जब हम बहुत अधिक उलझनों में हों तो हमें इसी की शरण में जाना चाहिए
कल आचार्य जी ने परामर्श दिया था कि उत्तरकांड में हम ९६वें से १०३ वें दोहे तक का भाग अवश्य पढ़ें इनमें कलियुग का वर्णन है
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद ब्यापि रहे ब्रह्मंड॥101 क॥
कागभुशुण्डी जी कह रहे हैं
हे पक्षियों में श्रेष्ठ गरुड़जी! सुनिए कलियुग में कपट, हठ , दम्भ, द्वेष, पाखंड, मान, काम, क्रोध,लोभ,मद,मोह मत्सर आदि ब्रह्माण्ड भर में व्याप्त हो गए हैं
तामस धर्म करिहिं नर जप तप ब्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनी बए न जामहिं धान॥101 ख॥
मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत, दान, सेवा आदि धर्म कर्म तामसी भाव से करने लगे हैं । देवता समय से धरती पर जल नहीं बरसाते असमय वर्षा हो जाती है और बोया हुआ अन्न भी उगता नहीं है दुष्परिणाम हमारे सामने हैं
तामसी भाव है कि हमने इतना बड़ा यज्ञ इतना विशाल कार्यक्रम कर दिया कोई कर नहीं पाया
इतना धन लगा दिया कोई लगा नहीं पाया
अबला कच भूषन भूरि छुधा। धनहीन दुखी ममता बहुधा॥
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता। मति थोरि कठोरि न कोमलता॥1॥
स्त्रियों के बाल ही भूषण हैं अब उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं रह गया है वे सदा अतृप्त रहती हैं संतृप्त नहीं रहती हैं वे धन रहित हैं और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुःख में डूबी रहती हैं। वे सुख चाहती हैं किन्तु धर्म में उनका प्रेम नहीं है...
इंद्रिय-दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रह गई है । मूर्खता अधिक दिख रही है ठगी बहुत अधिक बढ़ गई है । सभी शरीर के ही पालन-पोषण में लगे रहते हैं। परनिंदा करने वाले फैले पड़े हैं
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने बाबा रामदेव का नाम क्यों लिया आचार्य जी आज कानपुर क्यों आ रहे हैं मध्यप्रदेश राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता श्री दिग्विजय सिंह की चर्चा क्यों हुई नामजप का क्या महत्त्व है जानने के लिए सुनें