प्रस्तुत है मञ्जुभाविन् ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज वैसाख शुक्ल पक्ष चतुर्दशी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 22 मई 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
१०२८ वां सार -संक्षेप
¹ मधुर बोलने वाला
एक लम्बे समय से हम सदाचारमय विचार ग्रहण करते चले आ रहे हैं जैसा हम जानते हैं दीनदयाल विद्यालय १८ जुलाई १९७० गुरु पूर्णिमा के दिन महाराजा शिशुमन्दिर तिलक नगर से प्रारम्भ हुआ उस सत्र में भी सदाचार से हम लोग लाभ उठाते थे सदाचार हमें अच्छा लगता था विद्यालय का हम लोगों का अपना भवन बना हनुमान जी महाराज के मन्दिर का निर्माण हुआ मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा हुई ऐसी अनगिनत मधुर स्मृतियां हैं ऐसी आनन्दमयी स्मृतियों को संजोने के लिए हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि
ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक् प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि सर्वं
जब हमारी इन्द्रियां मन विचार आदि सशक्त होंगे तब हम जो भी सीखेंगे समझेंगे जानेंगे वह सब हमारे लिए और हमारे अपनों के लिए अत्यधिक प्राणवान् और जाग्रत होगा
यूं तो सुख दुःख चलता ही रहता है पर जीवन अद्भुत है क्षणभंगुर जीवन होने पर भी हमारे अन्तर्मन में आशा रहती है हम विदा होते हैं जनमने के लिए मानव जीवन सचमुच में अद्भुत अनुपम और विलक्षण है
हूं कभी निराशा की पीड़ा
आशा का हूं उल्लास
कभी पतझड़ की तन्हाई भी हूं
अनुगुंजित शुभ मधुमास कभी
यह जीवन सुख दुख शोक हर्ष उत्थान पतन की परिभाषा
क्षणभंगुर हो यह भले मगर
अन्तर्मन में केवल आशा
जीवन विराग की करुण कथा
संघर्षों भरी जवानी है
जीवन मरुथल की अबुझ प्यास गंगा का शीतल पानी है
जीवन अलबेला रंगमंच अभिनय अभिनेता एक रूप
और कल्पना कथा संगीत वाद्य सब मिल बनते मोहक स्वरूप
पर वेश उतरते ही दुनिया फिर वैसी वैसा खांव खांव
सुरभित प्रसून भ्रमरावलियां विलुप्त फिर से वह कांव कांव
हमें मानव जीवन मिला है हमें मनुष्यत्व की अनुभूति होनी ही चाहिए
भगवान् भी मनुष्य रूप में लीला करने के लिए अवतरित होते हैं
किष्किन्धा कांड में
पठए बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह सैला॥
बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ। माथ नाइ पूछत अस भयऊ॥3॥
को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा। छत्री रूप फिरहु बन बीरा ॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी। कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥4॥
मन अत्यन्त भावुक हो जाता है भगवान् की लीलाएं वर्णनातीत हैं
जब वह लीला करता है तो उसे पता रहता है कि वह भगवान् है लेकिन तब भी नर के रूप में लीला करता रहता है
लछिमन समुझाए बहु भाँती पूछत चले लता तरु पाती
यह पहचान तब होती है जब पहचान करवाने वाला पहचान करवा देता है
गीता में नारायण समझा रहे हैं और वह नर ही है जिसे समझा रहे हैं तिर्यग्जाति को नहीं
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को
ऐसी कविताएं कथाएं प्रसंग हमारे जीवन को उत्साह उमंग शक्ति से भर देते हैं
आचार्य जी परामर्श दे रहे हैं कि हम इन कथाओं आदि को सरलीकृत कर नई पीढ़ी को समझाएं परिवार सम्मेलन में संस्कारों की चर्चा करें अपने बच्चों के प्रेरणादायक वीडियो बनाकर यूट्यूब आदि पर डालें
राष्ट्रीय अधिवेशन से हमें समाज को बताना है कि केवल अंधेरा नहीं है
आचार्य जी ने यह भी स्पष्ट किया कि मेरे परिवार से हमारे परिवार तक जाने का क्या आशय है
इसके अतिरिक्त विद्यालय में तीसरे आचार्य जी के रूप में कौन आया था अपना मूल्यांकन कैसे करें आदि जानने के लिए सुनें
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