प्रस्तुत है लोकप्रसिद्ध ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष तृतीया विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 26 मई 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
१०३२ वां सार -संक्षेप
¹ विश्वविख्यात
अध्ययन और स्वाध्याय से अपनी समझदारी के पर्दे खुलते हैं ज्ञान -चक्षु खुलते हैं इसलिए सतत अध्ययन करते रहना चाहिए जैसे हमें उपनिषदों का अध्ययन अवश्य करना चाहिए
हनुमान जी की कृपा से यह सदाचार वेला, जिसमें आर्ष परम्परा से आई ज्ञान की किरणें हमें प्राप्त होती हैं,सदाचारमय संसार के स्वरूप की निर्मिति में सहयोग देने का छोटा सा लेकिन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विन्दु प्रयास है
एक शब्द है विन्दु और एक दूसरा शब्द है सिन्धु
विन्दु और सिन्धु एक ही तत्त्व के अंश हैं
विन्दु जब सिन्धु में विलीन हो जाता है तब वह विन्दु नहीं रहता अपितु सिन्धु हो जाता है
कबीर के शब्दों में
हेरत हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराई।
बूँद समानी समद मैं, सो कत हेरी जाइ॥
साधना की चरम अवस्था में जीव का अहंभाव नष्ट हो जाता है। यही आनन्द प्राप्ति की अवस्था है अद्वैत को अनुभव करने पर आत्मा परमात्मा का अंश लगता है। अंश अंशी में लीन होकर अपना अस्तित्व ही मिटा देता है।
उसका अस्तित्व सिन्धुमय हो जाता है
हमारी आर्ष परम्परा अद्भुत है पं दीनदयाल कहते थे कि वो जो कुछ बोलते लिखते हैं वह आर्ष परम्परा से प्राप्त है
एकात्म मानववाद भी उसी आर्ष परम्परा के अध्ययन का परिणाम है उनकी अपनी परिकल्पना नहीं
कामायनी की भूमिका में जयशंकर प्रसाद भी यही बात कहते हैं कि मैंने ऋग्वेद की कथा को इसमें संजोने का प्रयास किया है
आचार्य जी ने याज्ञवल्क्य मैत्रेयी कात्यायनी वाला प्रसंग बताया याज्ञवल्क्य की दो पत्नियां थीं मित्र ऋषि की पुत्री मैत्रेयी और भारद्वाज ऋषि की पुत्री कात्यायनी
कात्यायनी संसारी भाव में थीं जब कि मैत्रेयी चिन्तनशीला
ऋषि याज्ञवल्क्य को लगा कि अब वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में जाना चाहिए और अपनी संपत्ति इन दोनों में बांट देनी चाहिए याज्ञवल्क्य उस दर्शन के प्रखर प्रवक्ता थे, जिसने इस संसार को मिथ्या स्वीकारते हुए भी उसे पूरी तरह से नकारा नहीं। उन्होंने व्यावहारिकता के धरातल पर संसार की सत्ता को स्वीकारा कात्यायनी ने तो प्रस्ताव स्वीकार लिया, पर मैत्रेयी जानती थीं कि धन-संपत्ति से आत्मज्ञान नहीं खरीदा जा सकता। इसलिए उन्होंने पति की संपत्ति लेने से मना करते हुए कहा - "मैं भी वन में जाऊंगी और आपके साथ मिलकर ज्ञान और अमरत्व की खोज करूंगी क्योंकि धन और साधन तो क्षरणशील हैं
इस तरह कात्यायनी को ऋषि की सारी सम्पत्ति मिल गई और मैत्रेयी अपने पति की विचार-सम्पदा की स्वामिनी बन गईं
ऐसी अनेक हैं गिनती में हमारी विदुषी माताएं
हमें इनके बारे में जानना चाहिए और अपने बच्चों को अपनी धर्मपत्नियों को बताना चाहिए
इस भाव की अनुभूति करते हुए अपनी परम्पराओं को देखते हुए लक्ष्य और उपलक्ष्य का हम ध्यान रखें
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्। सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥
आचार्य जी ने परामर्श दिया कि हम उनसे प्रश्न करें ताकि हमें जो उत्तर मिलें उससे हमारे ज्ञान में वृद्धि हो सके
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने २ जून की बैठक के विषय में क्या कहा
जानने के लिए सुनें