भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥
प्रस्तुत है विलसत् ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष अष्टमी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 31मई 2024 का सदाचार सम्प्रेषण
१०३७ वां सार -संक्षेप
¹ चमक्ने वाला
ये सदाचार संप्रेषण दूरस्थ शिक्षा का अप्रतिम उदाहरण हैं और हमारी भारतीय परम्परा का परिपालन करते हुए यह शिक्षा हमारा मार्गदर्शन कर रही है
जो व्यक्ति केवल संसार में लिप्त रहते हैं वे व्याकुल ही रहते हैं हमें अपने अद्भुत ग्रंथों वेद उपनिषद् गीता मानस से शिक्षा में दूर रखा गया परिणाम यह हुआ कि हम संसार बन गए अर्थात् हम संसार में पूर्णरूपेण लिप्त हो गए
यदि कुछ क्षणों के लिए ही सही व्यक्ति संसार के साथ सार की भी अनुभूति कर ले तो कम से कम उन क्षणों में तो वह आनन्दित रहेगा ही
न मे मृत्यु शंका न मे जातिभेद:पिता नैव मे नैव माता न जन्म:
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: चिदानन्द रूप: शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥
बहुत कम समय में ही बहुत कुछ करने वाले भगवान् आदि शंकराचार्य एक उदाहरण हैं
जो अपने मनस् तत्त्व को संवेदनशीलता के साथ जाग्रत रखते हैं उन्हें श्री राम की कथा अपने घर की कथा लगती है
यह मनस् तत्त्व अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है हम मनुष्य इसीलिए हैं कि मन हमारे साथ है
दुनिया को परिभाषित करते हुए आचार्य जी कहते हैं
इस दुनिया में सबका अपना अलग अलग अंदाज है
सबकी बोली सबकी शैली अलग अलग आवाज है
तरह तरह के रंग रूप रुचियों का अद्भुत मेल है
अजब सुहाना अकस्मात् मिट जाने वाला खेल है
प्यार और तकरार प्रेम की पीर सुखद अनुभूति है
जो जलकर के राख हो गई उसका नाम विभूति है
सबका सुर सबका तेवर है सबका अपना साज है
इस दुनिया में...
दुनियादारी की भी सबकी अलग अलग परिभाषा है
शब्दों का अंदाज अलग पर वही एक सी भाषा है
दुनिया में आना जीना जाना तो एक बहाना है
सचमुच में दुनियादारी का अजब गजब अफसाना है
यह अफसाना ही दुनिया का अपना एक मिजाज है
हर पारखी यहां पर रखता अपनी अपनी माप है
पैमानों पर लगी हुई है सबकी अपनी छाप है
ये पैमाने ही दुनिया भर के सारे संघर्ष हैं
क्योंकि सबके यहां हो जाते अलग अलग निष्कर्ष हैं
खुश हो जाता एक दूसरे पर जब गिरती गाज है
दुनिया में रहते रहने पर सबको सभी अखरते हैं
और गुम हो जाने पर सुधियों में प्रायः रोज उभरते हैं
अच्छा बुरा प्रेम नफरत दुनियादारी के नखरे हैं
तरह तरह के छ्ल प्रपंच कोने कोने में पसरे हैं
दिन में शीश मुफलिसी ढोता रात पहनता ताज है
ज्ञान नसीहत का खुमार है
ध्यान यहां सोना चांदी
विश्वासों की छत के नीचे
रिश्तों की है आबादी....
इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया सौरभ राय जी का नाम क्यों लिया एक शाखा पर लड़ाई वाला क्या प्रसंग है आदि जानने के लिए सुनें