15.6.24

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष नवमी विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 15 जून 2024 का सदाचार सम्प्रेषण १०५२ वां सार -संक्षेप

 टूटता-जुड़ता समय-‘भूगोल’ आया,


 गोद में मणियाँ समेट ‘खगोल’ आया,


क्या जले बारूद? हिम के प्राण पाये !


 क्या मिला ? जो प्रलय के सपने में आये


प्रस्तुत है  न्युङ्ख ¹ आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज  ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष नवमी विक्रमी संवत् २०८१  (कालयुक्त संवत्सर )  15 जून 2024  का  सदाचार सम्प्रेषण 

  १०५२ वां सार -संक्षेप

¹ प्रिय


संसार में रहते हुए  भी यदि संसारी पुरुष कुछ समय के लिए संसार से अलिप्त रहते हुए अपने भावों विचारों में प्रवाहित रहता है तो यह ईश्वर की कृपा है 

जिसे संसार त्याग दे या जो संसार को त्याग दे और उसके बाद भी संसार में रहता रहे ऐसे दिव्य जीवन जीने वाले लोग भारतवर्ष में रहे हैं और अभी भी हैं 

अद्भुत तत्त्वों से परिपूर्ण इन सदाचार संप्रेषणों से हम संसार की समस्याओं को आसानी से सुलझा सकते हैं 

आइये प्रवेश करें आज की वेला में 


२४ छात्रों से शुरु हुए अपने विद्यालय ने जनमानस का ध्यान तब खींचा जब १९७५ में इसका परीक्षा परिणाम आया 

शिक्षा स्वास्थ्य स्वावलंबन सुरक्षा नामक चार आयाम लेकर हम चल रहे हैं उसमें मूल  शिक्षा है 

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ll 

ईशोपनिषद् का ग्यारहवां छंद 

अविद्या  सांसारिक विद्या है जिसे संक्षेप में हम कर्म कह सकते हैं

और विद्या अर्थात् असांसारिक विद्या या ज्ञानात्मक विद्या जिससे संसार उत्पन्न होता है 


कर्म और ज्ञान दोनों को जो भलीभांति जानता है 

वह अमरत्व का उपासक होता है 

हम मरते नहीं हैं हमारा शरीर मरता है 

हम न शरीर हैं न मन हैं तो हम क्या हैं मैं कौन हूं 


......

चिदानन्द रूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् 

भगवान् आदिशंकराचार्य ने जब सारा संसार देख लिया तब यह कहा 

कम समय में उन्होंने बहुत कुछ किया 

न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर्न वा....


मैं न प्राण हूं,  न ही पंच वायु हूं


मैं न सात धातु हूं,


और न ही...


मैं ये सब नहीं हूं मैं शुद्ध चेतना हूं यह ज्ञान आसानी से नहीं आता 

शिक्षा इसी पर आधारित है

आचार्य जी ने परामर्श दिया कि हम गीता का चौथा अध्याय अवश्य देखें जो अत्यन्त ज्ञान सम्पन्न है इसके १८ से २४ तक के छंद याद कर लें 


निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।


शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।४/२१।।



जिसका शरीर और अन्तःकरण भलीभांति वश में  है, जिसने सब प्रकार के संग्रह को त्याग  दिया है, ऐसा आशारहित कर्मयोगी  शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को प्राप्त नहीं होता।


हमें भ्रम हो गया कि मानस गीता पुराण महाभारत भागवत रामायण उपनिषद् पूजा की वस्तु हैं ये अध्ययन के लिए नहीं हैं ये चर्चा के लिए नहीं हैं इसी कारण शिक्षा पंगु है 

शिक्षा से नौकरी देखी जाती है स्वावलम्बी बनने का भाव नहीं आता भीख मांगने का भाव जो उत्पन्न करे वह शिक्षा नहीं है 

युगभारती स्वावलम्बी बनाने वाली शिक्षा के लिए प्रयत्नशील है और इसके लिए ऐसी शिक्षा देने वाले शिक्षकों के निर्माण की आवश्यकता है अंतिम बूंद जलने तक हम असंतुष्ट नहीं होंगे

आचार्य जी ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति की चर्चा की 

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने भैया शुभेन्द्र जी भैया सुरेश जी भैया विवेक जी का नाम क्यों लिया जानने के लिए सुनें