22.6.24

आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८१ (कालयुक्त संवत्सर ) 22 जून 2024 का सदाचार सम्प्रेषण १०५९ वां सार -संक्षेप

 यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।


मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।18.59।।


अहंकार के वशीभूत होकर तुम अर्जुन जो यह सोच रहे हो कि "मैं युद्ध नहीं करूंगा", यह झूठ है क्योंकि तुम्हारा स्वभाव ही तुम्हें बलात् कर्म में प्रवृत्त करेगा


प्रस्तुत है   आचार्य श्री ओम शङ्कर जी का आज  ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा विक्रमी संवत् २०८१  (कालयुक्त संवत्सर )  22 जून 2024  का  सदाचार सम्प्रेषण 

  १०५९ वां सार -संक्षेप


यह संसार विविध रूपों में हमारे सामने प्रस्तुत होता है भिन्न भिन्न संबन्धों स्वरूपों स्वभावों का यह संसार है संपूर्ण विश्व को दिशा देने वाला भारत तो अद्भुत है 

भगवान् कृष्ण युद्धस्थल में अर्जुन को समझा रहे हैं 

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।


स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।


स्वधर्म -पालन श्रेयष्कर है


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।


स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।18.47।।


स्वभाव से नियत किए गये कर्म को करते हुए मनुष्य पाप को नहीं पाता 

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।


सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।18.48।।

सहज भाव से कर्म करते चलें 

यद्यपि सारे कार्य दोष से युक्त हैं 


असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।


नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।।18.49।।


सर्वत्र आसक्ति रहित बुद्धि वाला ऐसा व्यक्ति जो स्पृहारहित और जितात्मा है, संन्यास से परम नैष्कर्म्य सिद्धि को पाता है।


सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे।


समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा।।18.50।।


हे अर्जुन तुम मुझसे संक्षेप में जान लो कि 


सिद्धि को प्राप्त मनुष्य किस प्रकार ब्रह्म को पाता है साथ ही ज्ञान की परा निष्ठा को भी किस प्रकार पाता है


असक्त बुद्धि वाले व्यक्ति के लक्षण इस प्रकार होते हैं 


बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च।


शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।18.51।।


विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः।


ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः।।18.52।।


विशुद्ध बुद्धि से युक्त, धृति द्वारा आत्मसंयम कर, शब्दादि विषयों को त्याग साथ ही राग-द्वेष को दूर कर 

विविक्त सेवी अर्थात् एकांत में रहने वाला ,स्वल्पाहारी जिसने अपने शरीर, वाणी,मन को संयत किया है, ध्यानयोग के अभ्यास में सदा ही तत्परता दिखाने वाला तथा वैराग्य पर  आश्रित रहता है



अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।


विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।18.53।।

अहंकार, बल, दर्प, काम, क्रोध और परिग्रह को त्याग ममत्वभाव से रहित  शान्त मनुष्य ब्रह्म प्राप्ति के काबिल बन जाता है


हमारा सनातन चिन्तन अद्भुत है लेकिन हमारे पास शक्ति भी अनिवार्य रूप से होनी चाहिए 

कुछ प्राप्त करना है तो शक्ति के बिना प्राप्त नहीं कर सकते 

पहले शक्ति शौर्य पराक्रम और फिर संयम 

हिन्दू दर्शन का यह सामञ्जस्य अद्भुत है 

हम विश्व को संवारने का काम करते हैं 

इसके अतिरिक्त आचार्य जी ने हनुमान जी के विभिन्न स्वरूपों का क्या वर्णन किया जानने के लिए सुनें